न्यूज डेस्क। इस बदलते दौर में आज भी कुछ जगहों पर लड़कियों को लज्जा, डर, सहम के एक बड़े बोझ के दबा कर रखा जाता हैं। लेकिन दबा के रखने वाला समाज इस बात से बिल्कुल अंजान बना पड़ा हैं कि लाज के लबादे में ढकी-सहमी ये बेटियां अंदर ही अंदर न जाने कितने रोग पाल बैठती हैं।
इसी लाज के चलते पीरियड के दिनों में ये अछूत बन जातीं हैं और दर्द से कहरती रहती हैं पर स्वाभाविक कहकर इसे भी सह जाती हैं। माहवारी के पांच दिन उनके लिए किसी सजा से कम नहीं होते। प्राकृतिक होते हुए भी यह समाज की बड़ी वर्जना है। ऐसे में अगर एक औरत पीरियड, पैड और हाइजीन पर जब मुखर होती है तो उसकी हिम्मत को सलाम करना ही चाहिए।
इसी तरह हिम्मत को सलाम देने वाली उन बेटियों में से सुमन भी एक हैं। यह सुमन अपनी माँ के शब्द ‘बिन बाप की बेटी, दबकर रह’ सुनकर ही बड़ी हुई। 17 साल की उम्र में ही ब्याह कर ससुराल काठीखेड़ा आ गईं। जहां न बिजली थी, न सड़क और न टॉयलेट। जानवरों के लिए जगह थी लेकिन औरत के लिए नहीं।
पीरियड में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता। सभी औरतें कपड़े का इस्तेमाल करती थीं। तब सुमन न सिर्फ खुद के लिए बल्कि गांव की हर औरत की उम्मीद बनी। संस्था से जुड़कर महिलाओं को पैड का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया।
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औरतों को जोड़कर पैड मशीन से पैड बनाए। सुमन और उनकी ननद स्नेहा पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस ने ऑस्कर जीता। सुमन का सफर अभी भी जारी है। अब वह और स्नेहा गांवों की महिलाओं को पीरियड में हाइजीन के प्रति जागरूक करती हैं।
पुरुषवादी मानसिकता ने सुमन की इस सोच को कुचलने की बहुत कोशिश की लेकिन वह दृढ़ थीं। उनका चरित्र हनन हुआ, अपशब्द कहे गए, एक बार हमला भी हुआ लेकिन सुमन संघर्ष करती रहीं। उनकी लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि गांव की दूसरी महिलाओं के लिए भी थी।
40 वर्षीय सुमन वर्तमान में अपने परिवार के साथ हापुड़ में रहती हैं। आठ महीने पहले उन्होंने केयर वेंटा संस्था बनाई है। सुमन और स्नेहा हापुड़ के लगभग 40 गांवों में महिलाओं को जागरूक करने का कार्य कर रही हैं। आने वाले समय में कश्मीर से कन्याकुमारी तक पैड यात्रा निकालने की उनकी योजना है।
सुमन बताती हैं, पीरियड आज भी छुआछूत है। इसको लेकर समाज में कई भ्रांतियां फैली हुई हैं। बाहर जाने वाली लड़कियां, महिलाएं पैड यूज करती हैं। 30 वर्ष से आगे बढ़कर महिलाएं कपड़े पर आ जाती हैं। हर महिला इस तकलीफ को झेल रही है। उन्हें यह सोचना होगा, हमें अपनी जरूरत खुद भी तो है। खुद से प्यार करना जरूरी है।
हम लोग उन गांवों में ज्यादा काम करते हैं, जो शहर से 10-20 किमी दूर हैं। अब हम न पैड की बात करते हैं और न कपड़े की। हमारा मुख्य मुद्दा स्वच्छता रहता है। निम्न मध्यम वर्ग के पास पैड के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसे में उनके पास जो उपलब्ध है, उसे बेहतर तरीके से कैसे इस्तेमाल कर सकती हैं, ये उन्हें बताते हैं।
पैड प्रोजेक्ट सेटअप के लिए नहीं मिली थी जगह
सुमन एक्शन इंडिया एनजीओ में काम करती थीं। 2017 में संस्था में पैड प्रोजेक्ट आया। गांव में इसके सेट अप के लिए किसी ने जगह नहीं दी। सुमन ने अपना घर खाली कर सेट अप लगवाया। खुद हापुड़ में किराए पर रहने लगीं। सुमन ने अपनी ननद स्नेहा को इस प्रोजेक्ट से जोड़ा।
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गांव की दूसरी महिलाओं से भी बात की। उस वक्त लोग उनका हाथ पकड़कर घर से भगा देते थे। गांव वाले कहते, कुछ और काम नहीं मिला करने को। धीरे-धीरे महिलाएं जुड़ने लगीं। पैड शब्द गांव में निषेध था। आज भी है। तीन चरणों में डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पीरियडः द एंड ऑफ सेंटेंस’ बनी। 25 फरवरी 2019 को उसने ऑस्कर जीता। तब समूचे हापुड़ ने सुमन और स्नेह का स्वागत किया।
महिलाओं के लिए पैड फ्री क्यों नहीं
उन्होंने बताया कि हमारी बात को दो वर्ग अच्छे से समझते हैं। एक 12-15 वर्ष तक की लड़कियां जिनके पीरियड शुरू हो रहे होते हैं, दूसरी 40-45 साल की महिलाएं जो भुक्तभोगी रह चुकी हैं। सरकार महिलाओं के मुद्दों पर काम नहीं करती। महिलाओं के लिए राशन फ्री है लेकिन पैड नहीं। यह बहुत बड़ी समस्या है। पैड यात्रा में हम महिलाओं से संपर्क करेंगे, वर्कशॉप करेंगे। टोल फ्री नंबर भी निकालेंगे।