जम्मू-कश्मीर में हुए जिला विकास परिषद के चुनाव नतीजों को राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है। भाजपा की उम्मीदों का कमल कश्मीर घाटी में खिलना जहां गुपकार संगठन के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है, वहीं भाजपा का गढ़ समझने जाने वाले जम्मू में गुपकार संगठन को 34 सीटें मिलना भाजपा की भी चिंता बढ़ाने वाला है। घाटी में जितना कमल खिला है, उससे अधिक जम्मू में उसे नुकसान भी हुआ है।
भाजपा आलाकमान को इस पर भी विचार करना चाहिए। ये चुनाव नतीजे बताते हैं न केवल कश्मीर घाटी में वरन जम्मू क्षेत्र में भी राजनीतिक बदलाव की लहर चल रही है। राज्य में राजनीतिक एकाधिकार की भावभूमि दरक रही है। जिला विकास परिषद की 280 सीटों के चुनाव में भाजपा निश्चित रूप से 75 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है लेकिन यह सच है कि वह गुपकार संगठन को मात देने में बहुत पीछे रह गई है। सर्वाधिक 110 सीटें पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन के खाते में गई हैं। 50 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीते हैं। उमर अब्दुल्ला अभी से निर्दलीय प्रत्याशियों पर डोरे उालने, उन्हें धमकाने और किसी से मिलने न देने का आरोप लगाने लगे हैं। उनका आरोप तो यह भी है कि नेशनल काफ्रेंस के एक विधायक को भी उठा लिया गया है।
इन आरोपों में कितनी सच्चाई है,यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इस सच को नकारा नहीं जा सकता है कि जिला विकास परिषद का चुनाव जीते निर्दलीयों की कद्र दोनों ही तरफ बढ़ गई है। केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर पहले ही कह चुके हैं कि कुछ निर्दलीय विजेता भाजपा समर्थित भी हैं। इसके अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं। धारा 370 और 35 ए को खत्म किए जाने के बाद घाटी में जिस तरह लोगों ने मतदान किया, वह सही मायने में लोकतंत्र की जीत है। गनतंत्र पर गणतंत्र की विजय है। सच पूछा जाए तो यहां आतंकवाद पर लोकतंत्र की जीत है। धारा 370 के अंत से पहले तक जम्मू-कश्मीर पर फारुख अब्दुल्ला,मुफ्ती परिवार का कब्जा रहा है और उनके इर्द-गिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले दो-चार परिवार जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक मुनाफे की फसल काटते रहे हैं। वे अपने बच्चों को तो विदेशों में पढ़ाते रहे हैं और राज्य के युवाओं को पत्थरबाज बनाते और उनका समर्थन करते रहे हैं।
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दरअसल इन परिवारों ने जम्मू-कश्मीर का काफी अहित किया है। जिस तरह से फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सईद ने अपना दोबारा हक लेने और धारा -370 की वापसी की मांग की है, उससे तो यही लगता है कि वे अंदर से बेहद तिलमिलाए हुए हैं। उन्हें यह भी लगता है कि वे राज्य में अपना वजूद खो रहे हैं और अकेले दम पर भाजपा को चुनावी शिकस्त दे पाने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए परस्पर विरोधी विचारधारा होने के बाद भी सो गिले-शिकवे भूलकर पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने परस्पर गठबंधन किया। इसमें सज्जाद गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट और माकपा की स्थानीय इकाई भी शामिल हुई। गुपकार संगठन की एकता राजनीतिक लिहाज से देखा जाए तो भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है।
अब विधानसभा क्षेत्रों का सीमांकन होना है। इसके बाद विधानसभा चुनाव होंगे। नतीजों के विश्लेषण से भाजपा और गुपकार संगठन को इतना तो अहसास हो ही गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में नतीजे कैसे रह सकते हैं। जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में पिछले सात दशक में यह पहला मौका है जब पश्चिमी पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए 22 हजार से अधिक परिवारों को भी जिला विकास परिषद, पंच और सरपंच चुनावों में वोट करने का अधिकार दिया गया। आबादी के लिहाज से इनकी संख्या 1.5 लाख से ज्यादा है। इनमें 1 लाख रिफ्यूजी को वोटिंग का अधिकार है। आर्टिकल 370 लागू रहने तक ये रिफ्यूजी केवल लोकसभा चुनाव में ही वोट कर पाते थे। इन्हें विधानसभा, स्थानीय निकाय चुनाव और पंचायती चुनाव में वोट डालने का अधिकार नहीं था। मौजूदा चुनाव नतीजों से इतना तो तय है कि जम्मू-कश्मीर की पंचायतें मजबूत होंगी और इन्हीं से निकलकर युवा नेतृत्व राज्य में घरानों की राजनीति को चुनौती देंगे।
राज्य में आतंकवादियों के खिलाफ जिस तरह कार्रवाई हो रही है और जिस तरह जनता में आतंकवादियों के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है, वह घाटी के लिए स्वस्थ संकेत है। राज्य के लोगों में प्रगति की आकांक्षा जगी है। पाकिस्तान की आए दिन की गोलाबारी और आतंकी घुसपैठ से वे तंग आ चुके हैं जिस तरह पाकिस्तान से कभी खालिस्तानी आतंक का अंत हुआ था, कुछ उसी तरह की उम्मीद जम्मू-कश्मीर में भी की जा रही है। राज्य की जनता शांति के खुले माहौल में सांस लेना चाहती है। मौजूदा चुनाव उसके परिचायक हैं लेकिन राज्य के लोगों को इस बात का भी विचार करना है कि वे विधान सभा चुनाव के जरिए ऐसे लोगों की चुनें जो वाकई राज्य के विकास और हित के आकांक्षी हों। मौजूदा वक्त की यही मांग भी है।
वैसे अगर देखा जाए तो जिला विकास परिषद चुनाव का एक लाभ यह हुआ है कि जम्मू-कश्मीर में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू हो गई है। जिला विकास परिषद के माध्यम से लोग इस केंद्र शासित प्रदेश में अपने विकास का खाका खुद खींच सकेंगे। यह उम्मीद तो बलवती हुई ही है। डीडीसी चुनाव में कई युवा जीतकर आए हैं। प्रदेश भर में डीडीसी की 280 सीटों पर 2178 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे और करीब 30 लाख लोगों ने लोकतंत्र पर मुहर लगाई।
आतंकवाद प्रभावित कश्मीर घाटी में विपरीत परिस्थितियों में करीब 40 फीसदी लोगों ने वोट डाले। पिछले दो चुनावों की तुलना में यह दोगुना है। आतंकी खौफ के बीच बारिश-बर्फबारी में महिलाएं, युवा और बुजुर्ग घाटी में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए बूथों तक पहुंचे। पाकिस्तान की गोलीबारी से प्रभावित एलओसी से सटे पुंछ और राजोरी में रिकॉर्ड 80 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ। मतदाताओं के इस साहस की सराहना की जानी चाहिए और अपेक्षा की जानी चाहिए कि जल्द ही जम्मू-कश्मीर में मतदाताओं के अपने मिजाज की सरकार होगी और वह उनके हिताहित की सम्यक रूपेण चिंता कर सकेगी।