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उत्तराखंड में तीरथ सिंह रावत को मिली राज्य की कमान

तीरथ सिंह रावत

तीरथ सिंह रावत

उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत  की सरकार बदल गई और भाजपा नेतृत्व ने उन्हीं के उपनामधारी तीरथ सिंह रावत को राज्य की कमान सौंप दी लेकिन इससे वह अपने अभाीष्ठ की प्राप्ति में  कितनी सफल हो पाएगी, यह देखने वाली बात होगी।  इनके अतिरिक्त तीरथ सिंह रावत रावत के लिए यह भी बड़ी समस्या है कि वह किस सीट से विधानसभा के सदस्य बनें। 2019 में सांसद बनने से पहले वह 2012 में चौबटखल से विधायक थे। यह सीट अब सतपाल महाराज के पास है और वह इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। जिला अल्मोड़ा में साल्ट सीट भी सुरेंद्र सिंह जीना के निधन (नवम्बर 2020) के कारण खाली है, लेकिन उसे गैरसैण विवाद के कारण सुरक्षित नहीं समझा जा रहा है। इसलिए अनुमान यह है कि शायद महाराज को केंद्र में पदास्थापित कर चौबटखल को ही रावत के लिए खाली कराया जाये।

त्रिवेंद्र की  कार्यशैली के कारण उत्तराखंड के बीजेपी विधायकों और सांसदों में असंतोष काफी समय से सार्वजनिक हो रहा था। अनेक बार पार्टी आलाकमान से शिकायत भी की गई थी, फिर भी वह अपनी कुर्सी बचाए रखने में सफल हो रहे थे, लेकिन पिछले एक सप्ताह के दौरान राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेजी से करवटें लेने लगा, खासकर आगामी विधानसभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए (जिनमें अब एक वर्ष से भी कम का समय रह गया है) कि 9 मार्च को त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इस तरह उत्तराखंड में मुख्यमंत्रियों द्वारा अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा न कर पाने की परम्परा जारी रही। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तराखंड का गठन सन 2000 में हुआ था और तब से केवल एक मुख्यमंत्री, नारायण दत्त तिवारी, ही पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने में सफल रहे हैं। बहरहाल, त्रिवेंद्र सिंह रावत के त्यागपत्र के बाद ये अटकलें तेज हो गईं कि राज्य का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा? छह नामों- अनिल बलूनी, धन सिंह रावत, सतपाल महाराज, भगत सिंह कोश्यारी, अजय भट्ट व रमेश पोखरियाल निशंक- की विशेष रूप से चर्चा रही थी, लेकिन बाजी मारी बीजेपी के पौड़ी गढ़वाल से सांसद तीर्थ सिंह रावत ने।

दो मोटरसाइकिलों की आमने-सामने हुई टक्कर

इस तरह उत्तराखंड में एक टीएसआर (त्रिवेंद्र सिंह रावत) की जगह दूसरे टीएसआर (तीर्थ सिंह रावत) ने ले ली है। सवाल यह है कि क्या नये टीएसआर आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की नैया को पार लगा सकेंगे? उनके समक्ष जो राजनीतिक व प्रशासनिक चुनौतियां हैं, क्या उनसे निपटने में वह सक्षम हैं? इस बात को दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है कि यह परिवर्तन अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को मद्देनजर रखते हुए किया गया है। आखिरकार, राज्य ने किसी भी पार्टी को लगातार दो टर्म के लिए सत्ता में नहीं रखा है और बीजेपी इस बात को महसूस कर रही थी कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के विरुद्घ सत्ता विरोधी लहर बनती जा रही थी। एक नये चेहरे से बीजेपी सत्ता विरोधी लहर को रोकने की उम्मीद कर रही है। साथ ही यह बात भी भूलनी नहीं चाहिए कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ राज्य बीजेपी में काफी समय से विद्रोह पनप रहा था।

उनकी ‘कार्यशैली और पार्टी कैडर से जुड़ न पाने के संदर्भ में निरंतर शिकायतें आ रही थीं। यह सब उस समय अति विस्फोटक हो गया जब हाल ही में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण को राज्य का तीसरा प्रशासनिक विभाग बनाने की घोषणा की और वह भी उसमें अल्मोड़ा को मिलाते हुए, जिसका विरोध सांस्कृतिक पहचान के कारणों के चलते कुमाऊं क्षेत्र के लोग कर रहे हैं। त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटकर, बीजेपी ने इन कठिन मुद्दों को फिलहाल के लिए अस्थायी तौरपर टाल अवश्य दिया है, लेकिन नये मुख्यमंत्री तीर्थ सिंह रावत के पास पार्टी को विधानसभा चुनाव के लिए तैयार करने हेतु सीमित समय है। साथ ही उत्तराखंड में बीजेपी में अनेक ऐसे नेता हैं जो प्रधानता के लिए प्रयासरत हैं। कुछ, जैसे पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, चुनाव से पहले अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिकाओं के इच्छुक प्रतीत होते हैं। दरअसल, बहुतायत की समस्या बीजेपी के लिए अन्य राज्यों में भी है, क्योंकि अन्य पार्टियों के नेता उसके सदस्य बनते जा रहे हैं।

नये सदस्यों का प्रबंधन और पुराने सदस्यों से टकराव को दूर करना बीजेपी के लिए आगामी राज्य चुनावों में बहुत बड़ी चुनौती है, खासकर इसलिए भी कि जो लोग अन्य पार्टियों से आ रहे हैं उनमें वह अनुशासन व राजनीतिक संयम नहीं है जो आरएसएस से ट्रेनिंग प्राप्त सदस्यों में होता है।

इससे आरएसएस के लिए भी बीजेपी पर अपना नियंत्रण बनाये रखने में अब कठिनाई होने लगी है। वैसे आरएसएस का सार्वजनिक दावा यह है कि वह बीजेपी के राजनीतिक मामलों में दखल नहीं देती है। साफ छवि वाले तीरथ  सिंह रावत उत्तराखंड में जाने माने ठाकुर चेहरा हैं और उनकी जड़ें भी आरएसएस से जुड़ी हुई हैं। रेलवे में फिटरमैन कलम सिंह की सबसे छोटी व छटी संतान, तीर्थ सिंह रावत स्कूल में औसत दर्जे के छात्र थे, जो हमेशा लो-प्रोफाइल रहते और स्पॉटलाइट से दूर रहने में ही सहज रहते। खामोश तबियत वाले तीर्थ सिंह रावत ने ‘कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन जैसा आम आदमी कभी मुख्यमंत्री बन जायेगा, लेकिन अब जब वह बन गये हैं, तो वह कहते हैं कि उनमें जो ‘विश्वास व्यक्त किया गया है उसे उचित ठहराने के लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे और उनका फोकस धार्मिक पर्यटन, शिक्षा व स्वास्थ्य सेक्टर्स को प्रमोट करने पर होगा।

युवक पर अश्लील वीडियो और ब्लैकमेल करने का आरोप

लेकिन तथ्य यह है कि उत्तराखंड के दसवें मुख्यमंत्री तीर्थ सिंह रावत के समक्ष मुख्यत: पांच चुनौतियां हैं। 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए रावत की समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के अंदरूनी मामलों का प्रबंधन है और साथ ही अपने कैबिनेट में कार्य का समान वितरण करना होगा, खासकर इसलिए कि त्रिवेंद्र सिंह ने न सिर्फ अनेक पदों को रिक्त छोड़े हुए थे बल्कि उनकी शैली ‘वन-मैन शो की थी। वह केवल नौकरशाही पर ही भरोसा कर रहे थे, जिससे पार्टी कैडर उनसे नाराज हो रहा था। दूसरा यह कि उत्तराखंड में राजनीतिक नेतृत्व के लिए नौकरशाही का प्रबंधन करना ही सबसे कठिन रहा है। अनेक कैबिनेट मंत्रियों जैसे सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, रेखा आर्य, सुबोध उनियाल आदि के अनुभवों से मालूम होता है कि राजनीतिक नेतृत्व के लिए राज्य की नौकरशाही से तालमेल बिठा पाना बहुत मुश्किल है। अगर गहराई से समीक्षा की जाये तो त्रिवेंद्र सिंह के ‘पतन में भी नौकरशाही की अहम भूमिका निकलेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराखंड में ‘यस मिनिस्टर धारावाहिक ‘लाइव चलता है। तीसरा यह कि नये रावत के लिए शासन व विकास में संतुलन बनाना होगा।

 

राज्य में अनेक हाई-टिकेट प्रोजेक्ट हैं, जैसे चार धाम हर-मौसम सड़क, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल लिंक और भारतमाला प्रोजेक्ट। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बेरोजगारी आसमान स्पर्श करने लगी है और हेल्थकेयर, शिक्षा व अन्य संबंधित सेक्टर्स के वर्तमान स्तर को लेकर भी बहुत असंतोष है। चौथा यह कि चारधाम यात्रा व कुंभ का प्रबंधन करना उत्तराखंड में सत्तारूढ़ दल के लिए बहुत बड़ी चुनौती रही है। इन धार्मिक आयोजनों का गुणवत्ता प्रबंधन तीर्थ सिंह के लिए भी आजमाइश है, खासकर इसलिए कि पूर्व नेतृत्व ने विवादित देवस्थानम बोर्ड कानून पारित किया हुआ है। और अंतिम यह कि गैरसैंण को तीसरी कमिश्नरी बनाये जाने का जो जबरदस्त विरोध है, उसे किस तरह से नियंत्रित किया जाये।

 

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