Corona

कोरोना काल में राजनीति न हो

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उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय, अर्द्धशासकीय तथा किसी स्थानीय प्राधिकरण के अधीन कार्यरत कर्मचारियों के हड़ताल करने पर पाबंदी को छह माह के लिये और बढ़ा दिया है। पिछली बार यह पांबदी 25 नवंबर 2020 को लगायी गयी थी। सरकार ने उत्तर प्रदेश अत्यावश्यक सेवाओं का अनुरक्षण अधिनियम, 1966 के अधीन अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए हड़ताल पर और छह महीने की अवधि के लिए प्रतिबंध लगा दिया है।

राज्य के कार्य-कलापों से संबंधित किसी लोक सेवा, राज्य सरकार के स्वामित्व तथा नियंत्रण के तहत किसी सेवा तथा किसी स्थानीय प्राधिकरण के अधीन किसी सेवा के कर्मचारियों के लिए हड़ताल निषिद्ध की गई है। कर्मचारी संगठनों ने इस आदेश की आपातकाल से तुलना की है। विपक्ष पहले से ही सरकार पर अभिव्यक्ति की आजादी छीनने का आरोप लगता रहा है। यह सच है कि जिस तरह देश और प्रदेश में कोरोना संक्रमण (Corona) को देखते हुए लगभग बंदी जैसे हालात हैं, ऐसे में आंदोलन का वैसे भी कोई औचित्य नहीं है। यह तो आयोजकों को सोचना चाहिए कि  उनके लिए जरूरी क्या है? संगठन से जुड़ लोगों का जीवन या आंदोलन। वैसे भी आजकल बड़े से बड़े नेता भी अपनी बात ट्विटर और हवाट्सअप पर कह रहे हैं और इसी माध्यम से वे मीडिया माध्यमों और जनता तक अपनी बात पहुंचाभी रहे हैं। वर्चुअल सभाएं हो रही हैं। विरोध ही करना है तो उसके सौ तरीके हैं लेकिन भौतिक प्रदर्शन और आभासी प्रदर्शन में कुछ तो फर्क होता ही है।

मुख्यमंत्री प्रदेश के सभी जिलों का दौरा कर रहे हैं, वहां टीकाकरण और कोरोना (Corona) मरीजों के उपचार की व्यवस्था को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें भी अगर किसी को लगता है कि वे अपने राजनीतिक समीकरण साध रहे हैं तो यह उसकी अपनी सोच है।  वैसे जो भी काम करेगा। मेहनत करेगा, नाम तो उसका ही होगा। बातें चाहे जितनी की जाए लेकिन सच तो यही है कि विपक्षी दलों ने सत्ता की राह में रोड़े अटकाने को ही अपना धर्म मान लिया है। होना तो यह चाहिए था कि सरकारी कर्मचारी आंदोलन की बजाय इस राष्ट्रीय आपदा काल में अपने दायित्व का निर्वाह करते। खसुद तो टीका (vaccination) लगवाते ही, लोगों को प्रेरित करते। अपने हिस्से की जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन करते लेकिन ऐसा करने की बजाय वे अपने हितों को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। इसे किसी भी लिहाज से उचित नहीं ठहराया जा सकता।  एक अरब तीस करोड़ से अधिक आबादी को कोरोना से बचाने के लिए यह जरूरी है कि वैक्सीनेशन के जरिए हर्ड इम्यूनिटी विकसित की जाये। लेकिन इतनी बड़ी आबादी को टीके (vaccination) की दो डोज लगाना बहुत बड़ी चुनौती भी है।

इतनी बड़ी आबादी का तीसरी लहर से पहले तभी वैक्सीनेशन (vaccination) संभव है जब पूरा देश एकजुट होकर प्रयास करे। पिछली गलतियों को भुलाकर और निहित राजनीतिक स्वार्थ को पीछे छोड़कर केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें टीम इंडिया की तरह काम करें तभी यह पहाड़ जैसा लक्ष्य इस साल के आखिर तक प्राप्त करना संभव है। लेकिन जिस तरह देश में वैक्सीन को लेकर सियासी छीछालेदर चल रही है, वैक्सीन को लेकर अफवाह फैलाने, वैक्सीन बर्बाद करने, लोगों में वैक्सीन को लेकर व्याप्त भय और सियासी घमासान चल रहा है उससे वैक्सीनेशन (vaccination) की संपूर्ण प्रक्रिया टैक से उतर सकती है और काफी हद तक उतर भी गयी है। जनवरी और फरवरी में वैक्सीनेशन (vaccination) की धीमी रफ्तार के बावजूद मार्च से प्रक्रिया तेज होने लगी थी और अपै्रल में तो एक दिन में 43 लाख वैक्सीनेशन (vaccination) तक किया गया था जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।

लेकिन मई के बाद जबसे वैक्सीनेशन (vaccination) प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण किया गया तभी से वैक्सीनेशन की रफ्तार बहुत धीमी हो गयी और पूरी प्रक्रिया लड़खड़ाने लगी। इसे संभालने, फिर से केन्द्रीयकरण करने और वैक्सीन की डोज को बर्बाद होने से बचाने की जरूरत है। स्वास्थ्य सेवाओं के विकास एवं स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के मामले में केरल को बहुत प्रगतिशील राज्य माना जाता है। केरल की नर्सों ने वैक्सीन की एक भी डोज बर्बाद नहीं होने दी और अपनी व्यावहारिक सूझबूझ से वैक्सीन के आधे-आधे डोज को जोड़कर जितनी वैक्सीन दी गयी उससे अधिक लोगों का वैक्सीनेशन (vaccination) कर दिया। क्या देश को केरल की नर्सों से सबक नहीं सीखना चाहिए।

दरअसल सियासत और सेवा में यही फर्क होता है। दिल्ली, छत्तीसगढ़, बंगाल और झारखंड की सरकारें सियासी तौर पर तो बहुत सक्रिय रहती हैं। केन्द्र सरकार का प्रतिवाद करने में सबसे आगे रहती हैं, लेकिन अपने राज्यों में कोरोना से लड़ाई के मामले में झारखंड, छत्तीसगढ़ और दिल्ली की सरकारों ने सबसे खराब प्रदर्शन किया है। अब वैक्सीन की कमी को लेकर दिल्ली की सरकार ने केन्द्र की नाक में दम कर दिया है जबकि खुद एक भी डोज लाने में सफल नहीं हुई। जबकि दिल्ली के ही निजी अस्पतालों ने सात-आठ लाख डोज खरीद कर लगा भी दिया। इसी तरह झारखंड की सरकार ने 37 फीसद से अधिक वैक्सीन को बर्बाद कर दिया और  छत्तीसगढ़ में 30 फीसद वैक्सीन बर्बाद हो गयी। यह दरअसल जनता के पैसे की बर्बादी के साथ ही नागरिकों के जान से भी खिलवाड़ है। यह दुखद है और इसका अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। केन्द्र सरकार को वैक्सीनेशन की प्रक्रिया को फिर से सेंट्रलाइज करना चाहिए  ताकि सब कुछ केन्द्र की निगरानी में हो। इससे  वैक्सीनेशन को तेजी के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है।

देश है तो हम हैं, इस भावभूमि के साथ जब तक काम नहीं किया जाएगा, तब तक हम न तो अपना भला कर पाएंगे और न ही देश और प्रदेश का।

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