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जैन साहित्य में शान्तिरस की प्रधानता, राष्ट्र गौरव है शान्ति रस : डॉ. अभय जैन

जैन साहित्य

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लखनऊ। उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान, संस्कृति विभाग एवं हिन्दी तथा आधुनिक भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में ‘जैन साहित्य का हिन्दी भक्तिकाल पर प्रभाव’ विषय पर गोष्ठी का आयोजन रविवार को डॉ. राधाकमल मुखर्जी सभागार जेके ब्लाक में किया गया।

दीप प्रज्ज्वलन एवं सरस्वती वन्दना के उपरांत बीजक भाषण प्रस्तुतु करते हुए डा. योगेश जैन (एटा) ने कहा कि आत्मानुभूति में सुखद अनुभव के लिए जैन कवियों ने भक्ति रचना प्रारम्भ की। मुख्य अतिथि प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहाकि हिन्दी भक्तिकाल में जैन एवं राम भक्त, कृष्णभक्तों ने जिन रचनाओं को लिखा वे सभी मानवीयता की प्रतीक हैं।

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उ.प्र. जैन विद्या शोध संस्थान के उपाध्यक्ष प्रो. अभय कुमार जैन ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि जैन धर्म का भक्ति काल की रचनाएं पुजारी को पूज्य बनाने और साध्य एवं साधक के भेद को समाप्त करने की भावनाओं पर आधारित रहीं है। प्रो. जैन ने कहा कि जैन साहित्य में शान्तिरस की प्रधानता है और शान्ति रस हमारा राष्ट्र गौरव है। शान्ति पूर्ण भक्ति भावना भारतीय संस्कृति का प्रतीक है।

 

आगन्तुकों का स्वागत विभागाध्यक्ष प्रो.योगेन्द्र प्रताप सिंह ने किया। डा. राकेश सिंह, निदेशक, उ.प्र. जैन शोध संस्थान ने अतिथियों का अंगवस्त्रम देकर सम्मान किया। गोष्ठी के संयोजक प्रो. पवन अग्रवाल ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि भक्ति काल में जैन रचनाकारों का योगदान उतना ही है जितना रसखान ,सूर और तुलसी का है। अन्य प्रबुद्ध वक्ताओं प्रो एन.जी. देवकी (कोच्चि), डा. सभापति मिश्रा (प्रयागराज), प्रो. मामा कढ़ू (नागपुर), प्रो. राम किशोर शर्मा (प्रयागराज) और प्रो. भरत सिंह (गया) ने अपने विचार रखे।

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