सियाराम पांडेय ‘शांत ’
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) ने मेदिनीपुर जिले के कलाईकुंडा एयरबेस पर प्रधानमंत्री को इंतजार कराया या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी को इंतजार कराया, इस पर दोनों पक्षों के अपने तर्क हैं। इससे दोनों ही पक्ष खुद को अपमानित महसूस कर रहे हैं लेकिन इस तरह के हालात क्यों बने, इस पर कोई भी विचार नहीं करना चाहता। प्रधानमंत्री जिस किसी भी राज्य में जाएं, वहां उनकी अगवानी सरकार के स्तर पर किए जाने की सर्वमान्य परंपरा है। यास तूफान के एक दिन बाद ही प्रधानमंत्री के उड़ीसा और पश्चिम बंगाल दौरे का कार्यक्रम निर्धारित हुआ था और इस बात की जानकारी पूरे देश को थी फिर ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) को प्रधानमंत्री के कार्यक्रम की सूचना क्यों नहीं मिली, इसे तो वही बेहतर बता सकती हैं। यह तो उनके अपने सूचना तंत्र की विफलता है।
विलंब से पहुंचना अपराध नहीं है। विलंब किसी भी स्तर पर हो सकता है लेकिन ऐसे मामलों पर सामान्य शिष्टाचार से काम चलाया जा सकता था लेकिन जिस तरह के ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) के स्तर पर तर्क दिए जा रहे हैं, वह सामान्य शिष्टाचार और राजनीतिक प्रोटोकॉल की भावना के भी विपरीत है। झुकने से कोई छोटा नहीं होता। नवै सो भारी होय वाली बात पर भी अगर गौर किया जाता तो बात वहीं समाप्त हो जाती। ममता बनर्जी का तर्क है कि काफी इंतजार के बाद उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने दिया गया। अगर वे प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए समय पर पहुंचतीं तो इंतजार की जरूरत ही नहीं पड़ती। उनका आरोप है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के ट्वीट के जरिए उनकी छवि बिगाड़ने की कोशिश की गई। वे यह भी कह रही हैं कि मेरा अपमान मत करो। बंगाल को बदनाम न करो। बंगाल के मुख्यसचिव, गृहसचिव और वित्त सचिव केंद्र की बैठकों में भाग ले रहे हैं।
वे केंद्र का काम कर रहे हैं तो बंगाल का काम कब करेंगे। इस बात से ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) की राजनीतिक असहिष्णुता का भी पता चलता है। मतलब वे नहीं चाहतीं कि राज्य के नौकरशाह केंद्र की किसी बैठक का हिस्सा बनें। इसे राजनीतिक असहयोग नहीं तो और क्या कहा जाएगा? वे खुद तो केंद्र से तालमेल बिठाने नहीं चाहतीं और अपेक्षा कर रही हैं कि केंद्र उनके लिए सब कुछ करे। और उसका श्रेय भी न ले। उनका आरोप है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बंगाल में हुई चुनावी हार को पचा नहीं पा रहे हैं। इसलिए राजनीतिक प्रतिशोध की भावना से काम कर रहे हैं। उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके काम में रोड़ा अटका रहे हैं
मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय को राजनीतिक प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली बुलाने पर भी उन्हें ऐतराज है। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर बंगाल के
विकास के लिए उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पैर भी छूने पड़ें तो वे इसके लिए भी तैयार हैं। यही विनम्रता अगर उन्होंने पहले दिखाई होती तो कदाचित यह नौबत ही न आती। ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) पहले भी कई बार यह कह चुकी हैं कि वे मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानती। वाणी का मस्तिष्क और व्यवहार से सीधा संबंध होता है और यह बात ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) के कार्य व्यवहार में दिखती भी है। मुख्यमंत्री सबका होता है। इसके बाद भी अगर वह अपना-पराया करे और दलगत राजनीति से ऊपर न उठे तो इसे वैचारिक दिवालियापन नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। राजनीति में वैचारिक मतभेद अपनी जगह है लेकिन मनभेद के लिए कोई स्थान नहीं होता। हर राजनीतिक दल एक दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते हैं। ममता बनर्जी का तर्क यह है कि यह बैठक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच होने वाली थी। भाजपा नेताओं को इसमें क्यों बुलाया गया?
चक्रवात का सामना तो गुजरात और ओडिशा ने भी किया था। वहां की समीक्षा बैठकों में तो विपक्ष के नेताओं को शामिल नहीं किया गया था। प्रधानमंत्री के दौरे का मतलब होता है कि वे अपनी नजर से वस्तुस्थिति का आकलन करें। अगर उन्होंने पार्टी विधायक को बुला कर नुकसान के हालात जान ही लिए तो इसमें बुरा क्या है? ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) अगर समय पर पहुंचती तो प्रथम वरीयता उन्हें मिलती।
यास तूफान से पश्चिम बंगाल में हुए नुकसान के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamta Banerjee) ने 20 हजार करोड़ रुपये की राहत राशि मांगी है। यह मांग व्यावहारिक है या नहीं, इस पर भी सवाल उठने लगे हैं। पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष का आरोप है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ समीक्षा बैठक में भाग इसलिए नहीं लिया कि उन्हें अपने दावों का विस्तृत हिसाब नहीं देना पड़े। कायदतन तो ममता बनर्जी को इसका जवाब देना चाहिए।
प्रधानमंत्री समीक्षा बैठक में किसे बुलाएंगे,यह उनका विवेक है। राज्य का मुखिया होने के नाते उनका दायित्व था कि वह तूफान से हुए नुकसान से प्रधानमंत्री को अवगत कराती। पुनर्वास और निर्माण की कार्ययोजना बताती लेकिन यह सब कुछ करने की बजाय उन्होंने अपनी मांग का पुलिंदा पकड़ा दिया। मिलीं और चलती बनीं और इसके बाद सफाइयों कि झड़ी लगा दी । अगर वे बंगाल की आतिथ्य परंपरा का भी ख्याल रखतीं तो क्या उन्हें बार-बार सफाई देने की जरूरत पड़ती। उन्होंने प्रधानमंत्री को अलग से दिये प्रस्तावों में दीघा शहर के पुनर्निर्माण तथा सुंदरबन क्षेत्र के प्रभावित हिस्सों के पुनर्विकास के लिए 10-10 हजार करोड़ रुपये मांगे हैं। हर मुख्यमंत्री को केंद्र से अधिकाधिक आर्थिक सहयोग प्राप्त करना चाहिए लेकिन जो पहले से ही मानस बना ले कि उसे कुछ नहीं मिलना है, उससे इससे अधिक दुर्व्यवहार की उम्मीद भी तो नहीं की जा सकती।
विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी की बैठक में उपस्थिति की वजह से भी बनर्जी ने बैठक में भाग नहीं लिया। सवाल यह है कि शुभेंदु अधिकारी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं, ऐसे में वे विधानसभा सत्र में भी भाग लेंगे। क्या बनर्जी सदन में जाना बंद कर देंगी।
ममता का कहना है कि प्रधानमंत्री हार को पचा नहीं पा रहे हैं लेकिन शुभेन्दु अधिकारी से नंदीग्राम में चुनावी हार के सदमें से वे आज तक उबर नहीं पाई हैं। ममता और मोदी के इस विवाद में अब तो दाल-भात में मुसलचंद की तरह कांग्रेस भी कूद पड़ी है।वह केंद्र सरकार पर लोकतंत्र और सहकारी संघवाद पर हमला करने का आरोप लगा रही है। इंतजार तो सभी को करना चाहिए।इंतजार का फल मीठा होता है। अति आतुरता दुख देती है। प्रधानमंत्री इंतजार कर सकते हैं तो मुख्यमंत्री क्यों नहीं?
आपदा पर राजनीति करने के बजाय राजनीतिक दल अगर जनता के कल्याण के लिए सभी के साथ मिलकर काम करते तो ज्यादा उचित होता। आपदाएं आती जाती रहती हैं और देश उनसे जूझता और उसका निदान भी करता रहता है। संकट कभी भी, किसी भी राज्य में आ सकते हैं लेकिन उस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। उसका समाधान तलाशा जाना चाहिए। केंद्र और राज्यों के बीच समन्वय साधने के प्रयास होने चाहिए।