सियाराम पांडेय ‘शांत’
एक राजनीतिक दल के बड़े नेता ने कहा है कि यूपी में रामराज्य नहीं, जंगल राज है। ऐस कहने वाले वे अकेले नेता नहीं है। विपक्ष के और नेता भी कुछ ऐसी ही बात कह रहे हैं। उनके कथन का आधार क्या है, ये तो वही जाने लेकिन इससे लोक मन में विचलन के हालात तो बनते ही हैं?
रामराज्य अच्छा है या जंगल राज,यह तय करना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता है। रामराज्य एक आदर्श परिकल्पना है। इसमें कोई दरिद्र नहीं होता। दुखी नहीं होता। कोई किसी से वैर नहीं करता। कोई आर्थिक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विषमता नहीं होती। वगैरह-वगैरह। चुनाव सिर पर हो या चुनाव हो रहा हो तो यह जरूर कहा जाता है कि देश-प्रदेश में रामराज्य नहीं, जंगल राज है। राम राज्य के लिए आदर्श समाज की जरूरत है। गांधी जी ने जिस राम राज्य की कल्पना की थी, वह आदर्शों में, कल्पनाओं में तो अच्छा लगता है लेकिन उसे यथार्थ रूप देने के लिए हमें कलियुग से त्रेता युग में जाना पड़ेगा। हर मंत्री, विधायक और सांसद को राम बनना पड़ेगा। हर नौकरशाह को सुमंत बनना पड़ेगा। हर लेखक और विचारक को विश्वामित्र व वशिष्ठ की भूमिका निभानी होगी। मुख में कुछ और हृदय में कुछ वाला पैंतरा तो नहीं ही चलेगा।अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभानी पड़ेगी।
भगवान राम ने एक लोकापवाद पर अपनी अग्नि परीक्षिता पत्नी को त्याग दिया था। क्या आज कि तिथि में एक भी जनप्रतिनिधि त्याग और तितीक्षा की बात सोचता भी है। अमल में लाना तो बहुत दूर की बात है। वह संग्रह में विश्वास करता है न कि त्याग में। शुरुआती दौर की राजनीति कुछ और थी कि पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का रामनगर और मुगलसराय का मकान जैसे का तैसा रहा। अब तो पार्षद चुने जाते ही दरवाजे पर लग्जरी कार खड़ी हो जाती है। विधायक, सांसद और मंत्री की हर दूसरे चुनाव में संपत्ति बढ़ जाती है, यह सब कैसे होता है, यह कहने-सुनने का न तो विषय है और न ही इसके लिए उपयुक्त समय है। कौन नहीं जानता कि सत्ता मिलने पर भरत ने उसका तिरस्कार किया था। चौदह साल तक अयोध्या में खड़ाऊं शासन चला था। क्या मौजूदा दौर में ऐसा है? अब कितने दल खड़ाऊं शासन के पक्षधर हैं? यदि ऐसा नहीं है तो रामराज्य का राग अलापने से किसे क्या लाभ मिलने जा रहा है? इन्हीं सब हालात को देखने के बाद तो कबीर दास ने लिखा होगा कि ‘ राम कहै दुनिया गति पावै खांड़ कहै मुख मीठा।’
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कोई किसी से बैर न करे, यह कैसे संभव है? शेर और मृग एक घाट पर पानी पीएं, यह कैसे मुमकिन है? शेर शाकाहार तो नहीं करेगा, दाल -रोटी तो नहीं खाएगा। इस बात को समझा जाना चाहिए। नीति भी कहती है कि ‘स्वभाव दोष न मुच्यते।’ प्रकृति में कुछ भी समान नहीं है। फिर मनुष्य समान कैसे हो सकता है? उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति एक जैसी कैसे हो सकती है? गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘ एक पिता के विपुल कुमारा। पृथक-पृथक गुन धर्म अचारा।’अर्थात एक ही पिता की अलग-अलग संतानों का गुण-धर्म, स्वभाव और आचार-व्यवहार एक जैसा नहीं होता। रामराज्य अनावश्यक आक्रामकता का पक्षधर है। वह अनुशासित व्यवस्था का हिमायती है। अनुशासन है तो शांति है।
तटों के बीच बहती अनुशासित नदी जीवनदायिनी कही जाती है। रामराज्य की प्रतिष्ठा में सहायक साबित होती है लेकिन जब वह अपने तटों का अनुशासन तोड़ देती है तो लोक के लिए जानलेवा हो जाती है। रावणी प्रवृत्ति की संववाहक और आलोच्य हो जाती है। असमानता जलन और बैरभाव की जननी है। देश में असमानता नहीं है, यह बात तो कोई नहीं कह सकता। असमानता है, वह चाहे जिस किसी भी तरह की हो, इसका मतलब है कि रामराज्य तो है ही नहीं। रामराज्य का अर्थ स्वच्छंदता भी नहीं है। ‘ परम स्वतंत्र न सिर पर कोई’ की मानसिकता कभी भी रामराज्य के आदर्शों और सिद्धांतों का वहन नहीं कर सकती। राजतंत्र में राजा सबका होता था। प्रजापालक होता था। वह सबके बारे में सोचता था। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि सबका होता है लेकिन क्या वाकई विपक्ष प्रधानमंत्री को अपना प्रधानमंत्री मानता है? कोरोना की वैक्सीन तक को कुछ राजनीतिक दल देश का नहीं मानते। उसे लगवाने से इसलिए इनकार कर देते हैं कि यह भाजपाई वैक्सीन है। औषधि तो औषधि है, वह भाजपा, सपा, कांग्रेस और अन्य किसी भी दल की कैसे हो सकती है? जब रोग पूछकर नहीं आता, यह बताकर नहीं आता कि मरीज अमुक दल का है, इसलिए मैं इसके पास आया तो इलाज में इस तरह का दलगत छिद्रान्वेषण क्यों?
रामराज्य में आदर्शों, सिद्धांतों, सत्यनिष्ठा, वचनबद्धता और आचरण स्तरीय प्रतिबद्धता जरूरी होती है,वहां कथनी और करनी की भिन्नता बिल्कुल भी नहीं है। किसी बड़े का आदेश है तो है,उसमें सोच-विचार अधर्म है लेकिन लोकतंत्र में इस तरह के इंसान तलाशना मुश्किल है। एक नेता ने कभी मुझसे कहा था कि लोभियों के शहर में ठग उपासा नहीं मरता। रामराज्य में तो किसी में लोभ था ही नहीं। सभी लोग आत्मसंतुष्ट थे। पराई चूपड़ी देखकर जी ललचाने वाले नहीं थे। वह अपनी मेहनत की खाने वाला समाज था। जब इस देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था, जब इस देश में दूध-दही की नदियां बहती थीं,तब शायद शराब और निष्क्रियता लोक जीवन का हिस्सा नहीं बनी थी। गलती कुछ लोग ही करते हैं।
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सारा समाज गलती नहीं करता लेकिन कहते हैं न कि ‘सिधरी चाल चालै रोहू के सिर बिसाय।’ रामराज्य में संविधान की किताब नहीं था। उसमें दो ही चीज थी। एक यह कि इसे करना है और एक यह कि इसे नहीं करना है।अकेली राजा की ही अदालत थी। दूसरी कोई अदालत भी नहीं थी। एक राजा के पास दो चार-पांच ही मंत्री हुआ करते थे लेकिन व्यवस्था चाक-चौबंद बनी रहती थी। अब मंत्रियों की बहुतायत है। नौकरशाहों की बहुतायत है फिर भी अगर व्यवस्था पटरी पर नहीं आ रही तो कहीं तो कुछ गड़बड़ है। जरूरत उस गड़बड़ी को पहचानने की है। आज देश के पास संविधान भी हैं और ढेर सारी अदालतें भी हैं लेकिन रामराज्य नहीं है। इसकी वजह शायद यह है कि व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण नहीं है। लोभ पर नियंत्रण नहीं है। जंगल राज में कोई कानून नहीं होता। कोई संविधान नहीं होता। वहां शक्तिशाली ही राजा है। ‘जीवै-जीव अहार’ वाली स्थिति है। वहां जीवन की रक्षा भी करनी है और सिर पर मंडराती मौत से बचना भी है।
वहां एक जीव के अनेक शत्रु हैं, लेकिन जंगल में संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। वहां सब कुछ नया है। जितनी चैतन्यता वहां है, जितनी सक्रियता वहां है, उतनी अगर लोकतांत्रिक मनुष्यों में हो जाए तो आदमी कहां से कहां पहुंच जाए? जंगलराज का प्राणी उन्मुक्त विचरण करता है। लोकतंत्र में कुछ भी उन्मुक्त नहीं है। यहां इंसान ख्यालों में जीता है। जंगलराज उतना बुरा नहीं है जितना कि समझा जाता है। वहां क्षुधा पूर्ति तक का का ही संकट है। यहां संकट ही संकट है। जंगलराज में कोई सोचता नहीं है, मानव लोक में सोच-समझ की ही पराकाष्ठा है। यहां कोई किसी को बर्दाश्त नहीं कर पाता। असल द्वंद्व यहां है। इसलिए कौन सा राज्य अच्छा है और कौन सा बुरा, इस पर मंथन करने से पहले हम अच्छे हैं या नहीं, इस पर विचार करना ज्यादा मुनासिब होगा। ‘ बुरा जो ढूंढन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल ढूंढो आपनो मुझसा बुरा न होय।’ आत्म सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। जिस दिन खुद को सुधारने लगेंगे, देखने का नजरिया बदल जाएगा।