सियाराम पांडेय’शांत’
कोरोना संक्रमण और तज्जन्य मौत के आंकड़ों को लेकर दुनिया भर में भ्रम की स्थिति है। कोई भी देश सटीक जानकारी नहीं दे रहा है। कोविड -19 वायरस का जनक चीन तो इस तरह चुप्पी साधे है जैसे उसके यहां कुछ हुआ ही न हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया भर से सही आंकड़े बताने का आग्रह कर रहा है लेकिन चीन का नाम भी नहीं लेना चाहता। वजह चाहे जो भी हो। लेकिन, किस बात को कितना बताना है और कितना छिपाना है,यह संबंधित राष्ट्र का विषय है। इस बताने और न बताने पर उसके वैश्विक संबंधों की बुनियाद टिकी होती है। संक्रमण के भय से संबंधित देश अपने संबंधों को कुछ समय के लिए विरमित कर सकते हैं।इससे व्यापारिक और राजनयिक स्तर पर नुकसान होता है। अविश्वास का वातावरण तो बनता ही है। एक पुरानी कहावत है कि बंधी मुट्ठी तो लाख की खुली तो खाक की। इसलिए बहुत सारे राज को राज ही रहने देना चाहिए।
हाल के वर्षों में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन हाउस पर आतंकी हमला हुआ। आज तक दुनिया का एक भी देश नहीं जान पाया कि वहां कितने लोगों की मौत हुई । वहां की मीडिया ने भी धैर्य का परिचय दिया। एक भी विरोधी दल ने सार्वजनिक मंच पर सरकार को नहीं घेरा। ऐसा नहीं कि अमेरिका में लोकतंत्र नहीं है। वहां दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है लेकिन वहां के लोग जानते हैं कि उन्हें दुनिया को अपने बारे में क्या बताना है और क्या छिपाना है।
इस राज्य ने एक बार फिर बढ़ाया Corona curfew
चीन के वुहान में जब कोरोना वायरस का पहला संक्रमण हुआ था तो लॉक डाउन वहां भी लगा था लेकिन दुनिया को कानोंकान खबर नहीं हुई थी। लाखों लोग मारे गए। उन्हें जलाया गया, उस धुएं के गुबार से दुनिया ने अनुमान लगाया, वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि इतनी सल्फर दे ऑक्साइड तो मानव देह को जलाने से ही निकल सकती है लेकिन चीन ने कुछ नहीं बताया। भारत ही है जहां छिपाने की नहीं , बताने की परंपरा है। यहां सरकार तो बताती ही है। यहां का विपक्ष भी उसे बताने को बाध्य करता है। दूरगामी परिणामों की परवाह किए बगैर भी वह संसद में,राज्यों के विधान भवन में उसे घेरता भी है। उसकी नीति और नीयत पर सवाल भी उठता है। खुद नहीं घेर पाता तो विदेशी मीडिया में छपी खबरों को आधार बनाता है। भारतीय मीडिया भी अभव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरजोर लाभ उठाती है। इसके बाद भी राजनीतिक दलों को संविधान और लोकतंत्र पर खतरा नजर आता है।
यह सच है कि देश को जानना चाहिए कि वहां क्या हो रहा है लेकिन कितना जानना चाहिए और किसे जानना चाहिए। यह कौन तय करेगा? सरकार के पास कितने रक्षा उपकरण हैं,यह सेना के बड़े अधिकारी जानें,यहां तक तो उचित है लेकिन इसे देश का हर आदमी जानकर क्या करेगा?युद्ध या तनाव के दौरान जब हम अखबारों या चैनलों पर शत्रु देश की सैन्य ताकत को बढ़ा-चढ़ा कर बताएंगे तो हम अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाएंगे या घटाएंगे, यह सवाल हम भारतीयों के दिमाग में क्यों नहीं आता? क्या अपने देश के प्रतिपक्षी दलों को, मीडिया संस्थानों को अपनी कार्यशैली पर पुनर्विचार की जरूरत है। ऐसा नहीं कि दुनिया के तमाम देश कोरोना संक्रमण से पूरी तरह उबर गए हैं। उनके यहां मौतें नहीं हो रही हैं? लेकिन वहां भारत की तरह लाशों पर राजनीति नहीं हो रही है? वहां सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सकारात्मक तरीके से समस्या से निपटने का प्रयास कर रहे हैं।
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भारत ने कोरोना की प्रथम लहर में अमेरिका समेत दुनिया के अनेक देशों को टीका और औषधि देकर मदद की थी लेकिन अब वह टीकों का निर्यात नहीं कर पा रहा है, ऐसे में कई देशों में कोरोना संक्रमण से चिंता का ग्राफ बढ़ने लगा है। जबकि भारत की अपनी समस्याएं हैं। वहां जिस तरह गांव और शहर कोरोना की चपेट में आ रहे हैं, ऐसे में उसे तत्काल टीकों की जरूरत है। ऐसे में उसके समक्ष आपन झुलनी संभालू कि तोय बालमा वाली स्थिति है। भारत अपने तरीके से अपनी समस्याओं से जूझ भी रहा है। इधर बिहार और उत्तरप्रदेश में गंगा नदी में सैकड़ों शव उतराते मिले हैं। उन्नाव में गंगा की रेती में दबाए गए कुछ शव आंधी-पानी में नुमायां भी हुए हैं। वाराणसी, गाजीपुर, चन्दौली और भदोही जिलों में भी कुछ शव गंगा में उतराते मिले हैं। इसे लेकर राजनीति तेज हो गई है। एक दल जहां सरकार पर नैतिकता को तिलांजलि देने का आरोप लगा रहा है तो दूसरा दल हाई कोर्ट के न्यायाधीश से मामले की जांच कराए जाने की मांग कर रहा है।
उत्तरप्रदेश और बिहार में गंगा नदी में लाशों (dead bodies) का उतराना, गंगा तट पर रेत में बहुतायत में लाशों का प्रकटीकरण चिंता का विषय है और उससे भी अधिक चिंताजनक है प्रशासन का व्यवहार। शवों (dead bodies) का अंतिम संस्कार मृतक के धर्म और मान्यता के अनुरूप ही होना चाहिए। इन लाशों (dead bodies) का अंतिम संस्कार करना शासन और प्रशासन का दायित्व है और वह ऐसा करने की अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर कर रही है। नदियों और तटों पर लाशों का मिलना परिजनों की अपनी मजबूरी और दहशत भी हो सकती है। आपदा में अवसर तलाशने वालों की धूर्तता और कालाबाजारी का परिणाम भी हो सकती है। देखा जाए तो ये सामान्य लाशें नही हैं। ये लाशें सामाजिक संवेदनहीनता और मानव मूल्यों के क्षरण की प्रतीक हैं। ये लाशें (dead bodies)प्रशासन की नाकामी का प्रतीक हैं। ये लाशें (dead bodies)अपने दायित्वों से मुंह मोड़ते समाज का प्रतिबिंब हैं। बढ़ती महंगाई और आर्थिक विवशता का प्रतीक हैं। सब कुछ अच्छा ही है,ऐसा मान बैठे सत्तादेशों को आइना भी दिखाती हैं ये लाशें। कोई आपको कुछ कहे,इससे पहले हमें सचेत होना होगा।
कोरोना और जान ले, इससे पहले उसकी कमर तोड़नी होगी। और यह सब आंकड़ों की सटीक जानकारी हासिल कर ही मुमकिन ही सकेगा। अधिकारियों की आंख से देखने की बजाय सरकार को पार्टी कार्यकर्ताओं , स्वयंसेवी संगठनों और प्रतिपक्ष के जरिए भी हालत पर नजर रखनी होगी। नीति भी कहती है कि राजा की हजारों आंखे होती हैं। हजारों कान होते हैं जिनसे वह चीजों को देखता और समझता है और जब राजा कुछ लोगों तक ही सिमट जाता है तो उसका और उसके राज्य का पतन होने लगता है । सम्यक विकास के लिए सम्यक दृष्टिबोध भी जरूरी है।जरूरी नहीं कि राजा बहुत पढ़ा हो लेकिन उसे बहुत कढ़ा जरूर होना चाहिए ताकि वह सबकी सुनकर अपने विवेक से निर्णय ले सके । भारतीय हुक्मरानों को इस बात की ताकीद करनी चाहिए कि उन्हें जो भी सूचनाएं मिल रही हैं,वे सही तो हैं। आंकड़े सरकार तक सही स्वरूप में नहीं पहुंचेंगे तो चाहकर भी व्यवस्था की घटबढ़ को नहीं रोका जा सकता। आंकड़े दुरुस्त हों, इतने प्रयास तो होने ही चाहिए। आंकड़ों में खेल कर कुछ अधिकारी अपनी सुविधा का संतुलन स्थापित करें, व्यवस्था की लाशों पर रेत डालें, यह तो नहीं चलेगा। आदर्श लोकतंत्र इसकी अपेक्षा भी नहीं करता। लाशों (dead bodies) पर राजनीति न हो, लेकिन लाशों की गिनती ठीक हो, उनका सम्मानजनक संस्कार हो,यह दायित्व भी तो निभाया जाए। परस्पर सहयोग से ही कोई देश आगे बढ़ता है, मतभेद से नहीं, यह बात जितनी जल्दी व्यवहार में आएगी, उतनी ही जल्दी यह देश समस्याओं से निजात पा सकेगा । सब पर नजर हो, सबकी खबर हो, यहां तक तो ठीक है लेकिन नीयत में जहर तो बिल्कुल भी नहीं चलेगा। देश में राजनीति तो होनी चाहिए लेकिन देश से राजनीति का चलन बंद होना चाहिए। विश्व में भारत का नाम हो, ऐसे ही प्रयास किए जाने चाहिए। भारत की आलोचना में विदेशी पुरस्कार की संभावना तलाशने वाले समाज के लिए भी यह आत्ममंथन का अवसर है। काश, हम इसकी गंभीरता को समझ पाते।