सियाराम पांडेय ‘शांत’
भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व है महाशिवरात्रि (Mahashivratri) । यह शिव और शक्ति यानी प्रकृति और पुरुष के मिलन की रात है। शिव आदि पुरुष हैं । इस समूचे जड़, जंगम और स्थावर के पिता हैं तो माता पार्वती आदिशक्ति हैं। समूचे जड़, जंगम और स्थावर जगत की माता। यह सारी सृष्टि उन्हीं की लीलाओं का विस्तार है।
भगवान शिव का यह समस्त ब्रह्मांड रचा हुआ है। जब वे कहते हैं कि मैं विकारों से रहित , विकल्पों से रहित , निराकार , परम ऐश्वर्य युक्त , सर्वदा सभी में सर्वत्र ,समान रूप में व्याप्त हूं। मैं इच्छा रहित हूं। सर्व संपन्न हूं। जन्म -मरण से परे हूं। मैं सच्चिदानंद स्वरूप कल्याणकारी शिव हूं । केवल शिव । न तो मृत्यु हूं और न ही न संदेह । न तो जाति-भेद में बंटा हूं और न पिता न माता हूं। न जन्म न बन्धु , न मित्र न शत्रु, न गुरु न शिष्य ही हूं। मैं तो केवल सच्चिदानंद स्वरूप कल्याणकारी शिव हूं तो इससे पता चलता है कि यह समस्त संसार ही शिवमय है। हम सभी माता पार्वती और भगवान शिव की संतान है।‘ माता च पार्वती देवी, पिता देवो महेश्वरः। बांधवा शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम।’ ऐसे भगवान शिव की आराधना कौन नहीं करना चाहेगा।
माता-पार्वती और भगवान शिव साक्षात श्रद्धा और विश्वास हैं। ‘भवानी शकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरं।’ शिव अपने आप में जीवंत दर्शन हैं। शिव में परस्पर विरोधी भाव सहज ही देखे जा सकते हैं। उनके मस्तक पर अगर चंद्रमा है, तो गले में महाविषधर सर्प का हार है। वे अर्धनारीश्वर हैं। इसके बाद भी वे काम को अपने वश में करने वाले हैं। उनसे अच्छा गृहस्थ प्रकृति में कोई नहीं है तो उनसे अच्छा वीतरागी, संन्यासी और श्मशानवासी भी दूसरा कोई नहीं है। वे सौम्य स्वभाव के मालिक हैं। जल्द खुश हो जाने वाले आशुतोष तो हैं ही, भयंकर रुद्र भी हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी विपरीत स्वभाव वाले हैं लेकिन उनमें गजब का समभाव दृष्टव्य है। भगवान शिव स्वयं द्वंद्वों से रहित हैं और सह-अस्तित्व की महान विचार परंपरा को आगे बढ़ाने वाले हैं।
इस बार शिवरात्रि पर चार विशेष योग पड़ रहे हैं। शिवयोग, सिद्ध योग, श्रीवत्स योग और सौम्य योग। इसका मतलब इस बार शिवरात्रि में किया जाने वाला पूजन और वंदन शिव साधकों को शिवता और शुभता प्रदान करेगा। इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं है। वैसे भी शिवरात्रि पर्व सत्य और शक्ति दोनों को पोषित करता है। ज्योतिष ग्रंथों की मानें तो फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि को चन्द्रमा सूर्य के करीब होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग होता है। इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि फाल्गुन कृष्ण् पक्ष की यह चतुर्दशी को की गई शिवाराधना अभीष्ट फलदायक होगी।
शिव पुराण की ईशान संहिता कहती है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग के रूप में प्रकट हुए थे। उनका वर्णन कुछ इस प्रकार मिलता है । ‘फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्याम आदिदेवो महानिशि। शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्य समप्रभ:।’यह और बात है कि इस शिवरात्रि पर भद्रा की भी छाया है लेकिन शिवभक्ति में भद्रा निष्प्रभावी होती है। इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता। मान्यता है कि शिवरात्रि के प्रदोषकाल में ही भगवान शंकर और माता पार्वती का विवाह हुआ था। यही नहीं ,भगवान शिव ने अपने 12 ज्योतिर्लिंगों के प्रादुर्भाव के लिए फाल्गुन मास की त्रयोदशी तिथि को ही चुना था। इस दिन भगवान शिव की आराधना से साधक को अमोघ फल मिलता है।
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स्कन्द पुराण की मानें तो कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को सर्वव्यापी भगवान शिव समस्त शिवलिगों में विशेष रूप से संक्रमण करते हैं। भगवान शिव को हर माह की शिवरात्रि प्रिय है, लेकिन फाल्गुन मास की शिवरात्रि उन्हें अति प्रिय है। इस दिन व्रत करने से सभी पापों का नाश होता है। शिव का एक अर्थ है कल्याण। शिव की उपासना सही मायने में मनुष्य की कल्याणकारी कामना की चिरसाधना है। धरती पर ऐसा एक भी जीव नहीं जो कल्याण न चाहता हो। अच्छे और बुरे लोग अपने-अपने चिंतन के हिसाब से कर्म करते हैं और अपने कल्याण की अपेक्षा रखते हैं। इसके लिए हर संभव प्रयत्न करते हैं। यही ‘शिव’ की सर्वप्रियता है। शिव देवताओं के भी आराध्य हैं और दैत्यों के भी। ‘संकर जगदवंद्य जगदीसा। सुरनर मुनि तिन्ह नावत सीसा।’
श्रीराम ने सागर तट पर रामेश्वरम की स्थापना पूजा कर शिव से अपने कल्याण की कामना की और रावण ने भी जीवन भर शिव की अर्चना कर उनकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न किया। शिव का श्मशान में निवास उनकी वैराग्य-वृत्ति की पराकाष्ठा है। यह इस बात का संकेत है कि कल्याण प्राप्ति के लिए जरूरी है कि है सर्वसमर्थ होकर भी उपलब्धियों के उपभोग के प्रति अनासक्त रहा जाए। मानसिक शांति वही पा सकता है जो वैभव-विलास से दूर रहकर एकांत में शांतचित्त से ईश्वर का भजन करता है। शिव होने के लिए जरूरी है कि आवश्यकताएं न्यूनतम रखी जाएं। लौकिक इच्छाओं और भौतिक संपत्तियों से घिरे रहकर शिव बन पाना संभव नहीं है। लोक कल्याण के इच्छुक को सांसारिक प्रलोभनों और भौतिकता के चकाचैंध से दूर रहना पड़ता है।
वीतरागी होना शिवत्व प्राप्ति की पहली शर्त है। भगवान शिव सदा शांत रहते हैं लेकिन जब आक्रोश में भरते हैं तो तीन लोक कांप उठते हैं। अगर इसे नजरिये से देखा जाए कि सदा शांत रहने वाले शिव में रूद्रतत्व का प्रतिष्ठापन मनुष्य के मन में सन्निहित शांति और क्रोध की प्रतीकात्मक प्रस्तुति है तो जीवन दर्शन को समझने में ज्यादा सहूलियत होगी।
मनुष्य स्वभाव से शांत है किंतु जब उसकी शांति भंग होती है तब वह क्रोधित होकर शांति भंग करने वाली शक्ति को नष्ट कर देता है। जैसे कि भगवान शिव ने कामदेव को भंग किया था। शिव मानसिक शांति के प्रतीक हैं। अपने में ही मस्त और व्यस्त रहते हैं। ऐसी शांति उसी के मन में होती है जो कामनारहित हो। दरअसल कामनाओं का जागरण ही शांति भंग है । जब मन में कामनाओं का उद्रेक होता हैं तब शांति छिन जाती है। शिव शांति चाहते हैं।
इसीलिए वे कामनाओं के प्रतीक कामदेव को भस्म कर देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अगर संसार के लोग शांति चाहते हैं तो उन्हें अपनी अनावश्यक अभिलाषाओं को त्यागना होगा। महाशिवरात्रि के दिन ही शिव ने रति को वरदान देकर कामदेव को पुनः जीवित किया था। ‘रति’ सहज जीवन के प्रति आसक्ति का भावबोध है। यह भी सच है कि सब शिव नहीं हो सकते। सृष्टि के क्रम को बनाए रखने के लिए कामनाओं की भी जरूरत है।
संन्यासी शिव जब समस्त कामनाओं का नाश कर देते हैं तो इससे संसार का सामाजिक जीवन-प्रवाह बाधित होता है। इसीलिए उसे पुनः सुव्यवस्थित करने के लिए शिव को कामदेव को जीवन देना पड़ता है। शिवलीला को समझने वाले संसार में रहते हुए भी संसार के बंधनों में नहीं बंधते। यह सच है कि साधारण मनुष्य की जीवन यात्रा कामनाओं का पाथेय ग्रहण किए बिना पूर्णता नहीं प्राप्त करती। अतः विषय वासनाओं को त्याग कर स्वस्थ कामनाओं और जीवन को रचनात्मक दिशा देने की ओर गतिशील होना ही शिवाराधन है। यही शिवरात्रि की साधना है।
संसार को हलाहल विष के प्रभाव से बचाने के लिए शिव विषपान करते हैं। समाज में अपने लिए शुभ की कामना तो सभी करते हैं। अशुभ और अनिष्टकारी स्थितियों को कौन स्वीकार करना चाहता है लेकिन जो सबके हित का विचार कर अपने जीवन को खतरे में डाल दे, वही तो शिव है। सुविधा तो सबको चाहिए पर असुविधाओं में जीने को कोई तैयार नहीं। यश, पद और लाभ लेने को सब आतुर हैं किंतु संघर्ष का हलाहल पीने को कोई आगे नहीं आता।
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यही तो विडंबना हैं। ऐसे लोग शिव स्वरूप को जानें भी तो किस तरह? वर्गों और समूहों में बंटे समाज के मध्य उत्पन्न संघर्ष के हलाहल का पान लोककल्याण के लिए समर्पित शिव ही कर सकता है। जो लोकहित के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने को तैयार हो और जिसमें अपयश, असुविधा जैसी समस्त अवांछित स्थितियों का सामना करके भी खुद को सुरक्षित बचा ले जाने की क्षमता हो, लोककल्याण की कामना तो वही कर सकता है। समाज सागर से उत्पन्न कालकूट विष को पीना और पचाना शिव जैसे समर्पित व्यक्तित्व के लिए ही संभव है।
शिव समन्वयकारी हैं। शिव परिवार में सिंह,नन्दी, मयूर,नाग और मूषक सब साथ-साथ रहते हैं। सबकी अपनी क्षमता और मर्यादा है। कोई किसी पर झपटता नहीं, कोई किसी को आतंकित नहीं करता, कोई किसी से नहीं डरता। अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहते हुए अपने अस्तित्व को बनाए रखने की यह स्थिति आदर्श समाज के लिए भी जरूरी है। आज भारतीय-समाज जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, भाषा वर्ग आदि के असंख्य समूहों में बंटा हुआ है। परस्पर संघर्षरत है और समाज जीवन में अशांति का बीज वपन कर रहा है।
ऐसे में उसे शिव-परिवार की ओर देखना चाहिए जहां विरोधी स्वभाव के जीव साथ रहते भी है और सह अस्तित्व को भी बचाए रखते हैं। शिव परिवार की समन्वयकारी स्थिति इस बात की भी साक्षी है कि कल्याण चाहने वाले समाज में तालमेल बहुत जरूरी है। पारस्परिक अंतर्विरोधों, शत्रुताओं को त्यागे बिना समाज के लिए शिवत्व की प्राप्ति असंभव है। शिवपुत्र कार्तिकेय अगर सामरिक शक्ति और कौशल के चरम उत्कर्ष हैं तो गणेश बुद्धि बल, सूझ-बूझ और विवक पूर्ण निर्णय के अधिष्ठाता हैं। दोनों का समन्वय समाज कल्याण के कठिन पथ को निरापद बनाता है, यह कहने में किसी को भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए।
‘शिव’ शब्द में सन्निहित इकार ‘शक्ति’ रूप है। शक्तिरुप ‘इ’ के अभाव में ‘शिव’ शब्द ‘शव’ हो जाता है। शक्तिहीन अवस्था में शिव अर्थात कल्याण की स्थिति नहीं बनती। यदि सत्य शिव की देह है तो शक्ति उनका प्राणतत्व है। शक्तिरहित शिव की संकल्पना निराधार है। पार्वती के रूप में शक्ति स्वतः सिद्ध है। शक्ति के अनेक रूप हैं जबकि कल्याण सर्वदा एक रूप ही होता है। कल्याण की दिशाएं अनेक हो सकती हैं किंतु उसकी आनंद रूप में परिणिति सदा एकरूपा है। इसीलिए शिव का स्वरूप सर्वदा एक सा है।
उसमें एकत्व की निरंतरता सदा विद्यमान है जबकि माता पार्वती बार-बार जन्म लेती है, अपना स्वरूप परिवर्तित करती हैं। सामान्य जीवन प्रवाह में बौद्धिक, आर्थिक, सामरिक शक्तियां भी युगानुरूप अपना स्वरूप बदलती रही हैं। शक्ति सदा शिव का ही वरण करती है। शिव के सानिध्य में ही उसकी सार्थकता है। अत्याचारी आसुरी प्रवृत्तियां जब शक्ति पर अधिकार प्राप्त करने का दुस्साहस करती हैं तब शक्ति उनका नाश कर देती है। गंगा को शिव ने सिर पर धारण किया है। सिर पर पवित्र , महत्वपूर्ण और सम्मान के योग्य वस्तु ही धारण की जाती है। शिव द्वारा सिर पर गंगा का धारण किया जाना जीवन में जल के महत्व का स्पष्ट संदेश है।
शिव के गले में नाग का अर्थ यह नहीं कि कल्याणमूर्ति शिव आपराधिक तत्वों के आश्रयस्थल हैं। इसका आशय यह है कि कल्याण करने वाले व्यक्ति को इतना शक्तिमान होना चाहिए कि वह अपराधी-तत्वों को भी नियंत्रित कर सके। जब हम शिवरात्रि का पर्व मना रहे हैं तो हमें शिव परिवार, भगवान शिव के रहन-सहन, वेश-विन्यास पर भी विचार करना चाहिए। उसके संदेशों को भी समझना चाहिए। शिव ही एक ऐसे देवता हैं जो भाग्य में लिखे गए शब्दों को मिटाने की कूव्वत रखते हैं। ‘ भावहिं मेंटि सकहिं त्रिपुरारी।’ अगर हम वाकई अपना, समाज , प्रदेश और देश का कल्याण चाहते हैं तो हमें शिव के गुणों को अपने में धारण करना होगा। क्या ग्रहण करना है और क्या छोड़ना है, इसका विचार करना होगा। दूसरों के लिए सुख और अपने लिए थोड़ा दुख भी सही की भावभूमि अख्तियार करनी पड़ेगी तभी हम शिवरात्रि पूजन का सही अर्थ समझ पाएंगे।