सियाराम पांडेय ‘शांत’
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में पहले हर जिले में अपराध माफिया (Mafia) दिखा करते थे लेकिन मौजूदा योगी राज में माफिया दूरबीन से भी नजर नहीं आते। अगर वाकई ऐसी बात है तो यह बड़ी अच्छी बात है लेकिन इतनी बड़ी बात कहने के बाद भी अगर प्रदेशमें एक भी आपराधिक वारदात हो रही है तो इसका क्या मतलब निकाला जाए। सबसे बड़ी आबादी वाले, बड़े दायरे वाले प्रदेश में यह बात कहने से पहले उस पर विचार जरूर किया जाना चाहिए।
माफिया वैसे भी दूरबीन से देखने की चीज नहीं है। दूरबीन से दूर की चीजें देखी जाती हैं। माफिया चीज नहीं, वृत्ति है। प्रवृत्ति है। स्वभाव है। वह दूरबीन से नहीं, अंदर की आंख जिसे दिव्यदृष्टि कहते हैं, उससे देखा जा सकता है। अपराधी और माफिया को समझना है तो उसके कार्य व्यवहार को परखना होता है। दिन के उजाले में तो सभी साधु होते हैं। असली साधु की पहचान तो रात के अंधेरे में होती है। अवसर मिलने के बाद भी कोई अपराध न करे, गलत काम में प्रवृत्त न हो, यह जागरूकता विकसित हो सके तो, इसे उपलब्धि कहा जा सकता है।
क्षणिक आवेश में हुआ अपराधकर्म और आदतन अपराध कर्म में फर्क होता है, इतनी सामान्य सी बात तो समझी ही जानी चाहिए। वैसे भी माफिया को देखने की नहीं, समझने की जरूरत होती है। व्यक्ति के कर्म ही उसे अच्छा या बुरा साबित करते हैं। कबीरदास जब यह लिखते हैं कि ‘बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मिलिया कोय। जो दिल ढूंढा आपनो मुझ सा बुरा न होय’ तो इसका निहितार्थ सहज ही समझा जा सकता है।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के दावे वाली रात में ही चित्रकूट में मांडव वन में साढ़े पांच लाख का इनामी मारा जाता है तो इसे क्या कहा जाएगा? अपराध का अपना रक्तबीज होता है और रक्तबीज का कभी अंत नहीं होता। दुष्ट व्यक्ति ईमानदारी का चोला ओढ़कर आता है। परम शिष्टता और विनम्रता का परिचय देता है। पहले वह विश्वास जीतता है और फिर विश्वास का गला घोंटता है। जो दिखता है, वह सर्वांग सच नहीं होता। पर्दे पर तो केवल एक दृश्य होता है। क्या होना है, इसके लिए धैर्य और इंतजार जरूरी है।
जीवन को समझने के लिए भी छोटी-छोटी बातों पर गौर करना पड़ता है। माफिया दिखता नहीं, छिपता है। जो माफिया दिखने लगता है, उसकी उम्र घट जाती है। वजूद संकट में पड़ जाता है। अपराधी कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, उसके सरपरस्त चाहे जितने मजबूत क्यों हों, लेकिन डरता तो है ही। यह डर उसके अंदर से उपजता है। अपराध करते वक्त और अपराध करने के बाद पकड़े जाने का भय निरंतर उसका पीछा करता रहता है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अवश्यमेवभोक्तव्यं कृतम् कर्म शुभाशुभम।’ कर्म की निर्जरा नहीं होती। ‘जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल’ वाली बात बहुत सोच-समझकर भारतीय मनीषियों ने कही थी। अपराधी जितने अपराध करता है, उसमें कुछ परिस्थितिजन्य होते हैं। कुछ भय की उत्पत्ति स्वरूप होते हैं और कुछ स्वभावगत।
पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कहा करते थे कि सत्ता की धाक होती है। अपराधी उस धाक से डरते हैं लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता जब अपराध से जुड़े लोगों से गलबहियां करने लगती है, उसमें जाति -धर्म और अपने लिए लाभ की संभावना तलाशने लगती है तो अपराध की विषबेल फलने-फूलने लगती है। राजनीतिक दलों में कितने अपराधी हैं,यह प्रत्याशियों के घोषणा पत्र से आंका जा सकता है। अपराध के रक्त-बीज का विनाश तब होता है, जब उसके वजूद पर प्रहार हो। फुनगी काटकर और जड़ को यथावत रखने से तो बात नहीं बनती। अपराधी तलाशना सागर में बूंद तलाशने जैसा है। बूंद समाना समद में सो कत हेरी जाय। अपराधी को तो उसके स्वभाव और आचरण के आधार पर ही जाना-समझा और पकड़ा जा सकता है। इस युगसत्य को समय रहते समझने की जरूरत है।