दिल्ली हाईकोर्ट (delhi high court) की इस बात में दम है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था आवश्यक रूप से एक सरकार को दूसरी सरकार से बदलने की वकालत करती है और जनता को सरकार की आलोचना का अधिकार देती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारों से लेकर विभिन्न पार्टियों के समर्थक वैध असहमति और लोकतांत्रिक एक्टिविज्म को खामोश करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए राजद्रोह कानून, एनएसए से लेकर धमकी व सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग तक का इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर आंध्र प्रदेश में राज्य सरकार की आलोचना करने के लिए एक सांसद व दो तेलगू न्यूज चैनलों के विरुद्घ राजद्रोह का केस दायर किया गया है, तो मणिपुर में एक पत्रकार व एक एक्टिविस्ट के खिलाफ एनएसए लगायी गई है, क्योंकि उन्होंने ट्वीट किया था कि गाय के गोबर व मूत्र से कोविड-19 से सुरक्षित रहने व उसके उपचार का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है।
उत्तर प्रदेश में ऑक्सीजन की कमी की बात कहने पर एफआईआर व संपत्ति जब्त होने की धमकी है तो गुजरात में ‘शव वाहिनी गंगा कविता रचने पर (पारुल खक्खर की) ट्रोलिंग है। जाहिर है यह सब आलोचना बर्दाश्त करने के लिए नहीं हैं बल्कि आलोचना को खामोश करने की कोशिश है। इस समय सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में राजद्रोह कानून के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई चल रही है। यह याचिका मणिपुर के उन्हीं पत्रकार, किशोरचन्द्र वांगखेम, की है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत जेल में हैं क्योंकि जैसा कि ऊपर बताया गया है, उन्होंने गाय के गोबर व गौमूत्र से कोविड उपचार पर प्रश्न उठाये थे।
बहरहाल, अब जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में सुनवायी चल रही है तो आंध्र प्रदेश पुलिस ने व्हाईएसआरसीपी के विद्रोही सांसद केआर कृष्णाराजू व दो चैनलों के खिलाफ राजद्रोह का केस दायर किया है, जिसे आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में चुनौती दी है। राजू ने हिरासत में यातना दिए जाने का आरोप लगया है, जिसकी जांच एक मेडिकल बोर्ड करेगा। न्यूज चैनल आंध्र प्रदेश सरकार के खिलाफ अवमानना प्रक्रियाएं चाहते हैं, क्योंकि उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने स्वयं कहा था कि जो अधिकारिक कोविड प्रतिक्रियाओं की कमियों को उजागर कर रहे हैं, उनके विरुद्घ जबरदस्ती की कार्यवाही नहीं की जा सकती। इस महामारी के दौरान देश में अधिकतर राज्य सरकारें निरंतर अंतराल पर उन व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही कर रही हैं जो उनकी कोविड नियंत्रण नीतियों व प्रयासों से सहमत नहीं हैं और कठिन सवाल उठाने का साहस कर रहे हैं। इससे राजद्रोह, एनएसए जैसे काले कानून के खतरे उजागर हो रहे हैं।
आईपीसी में जो राजद्रोह की परिभाषा है- सरकार के प्रति असहमति, नफरत या अवमानना भड़काना या प्रयास करना लिखित में या बोलने से, ऐसी सामग्री का समर्थन करना, वह सरकार की प्रामाणिक आलोचना के खतरनाक स्तर तक समान प्रतीत होती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने राजद्रोह की परिभाषा को ‘ऐसी हिंसा भड़काना जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा या पब्लिक आर्डर को खतरा हो तक सीमित कर दिया है, लेकिन पुलिस अब भी आईपीसी की साहित्यिक परिभाषा का ही पालन करती है और अकसर सत्तारू ढ़ दल के राजनीतिक आलोचकों के विरुद्घ। राजद्रोह कानून के दुरूपयोग और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए आईपीसी व अन्य कानूनों के बेजा इस्तेमाल का अंदाजा बीजेपी के सीतापुर विधायक राकेश राठौर के बयान से लगाइये, विधायकों की हैसियत ही क्या है? अगर मैं ज्यादा बोलूंगा तो राजद्रोह का मुकदमा मुझ पर भी हो जायेगा।
आलोचना व असहमति का गला घोंटने से अति खराब नतीजे निकलते हैं। जब कमियों को सही से उजागर नहीं किया जाता है तो प्रशासनिक कार्य प्रभावित होते हैं। अगर इलेक्ट्रॉनिक चैनल पिछले साल रिया चक्रवर्ती की बजाय कोविड से सुरक्षित रहने के लिए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं और तैयारी पर फोकस करते तो शायद सरकार महामारी के प्रति लापरवाह न होती और दूसरी लहर इतनी जानलेवा न होती। यह सही है कि राजद्रोह के मामलों में निरंतर वृद्घि हुई है (2015 में 30 से 2019 में 93), लेकिन दोष सिंगल डिजिट में निकला है और यही हाल एनएसए का है, जिससे जाहिर है कि इस प्रावधान का राजनीतिक उद्देश्यों से प्रयोग होता है। अदालतों से बरी हो जाना कोई खास राहत की बात नहीं है क्योंकि परेशानी तो भुगत ही ली गई। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है कि राजद्रोह जैसे कानूनों पर विराम लगे और सरकारें अपनी नीतियों की आलोचना से सबक लेना सीखें जैसा कि प्रधानमंत्री कहते हैं।