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नैमिषारण्य के 84 कोसीय परिक्रमा की कैसे हुई शुरुआत, जानें क्या है पूरी कहानी

chakratirtham

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सीतापुर। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में प्रत्येक वर्ष के फाल्गुन मास की प्रतिपदा से शुरू होने वाले विश्व विख्यात 84 कोसीय परिक्रमा (84 Kosi Parikrama) मेले का आगाज होता है।  इस परिक्रमा मेले की शुरूआत सतयुग से हुई। तभी से नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसीय परिक्रमा (84 Kosi Parikrama) मेले में साधु संत और श्रद्धालु भाग लेते चले आ रहे हैं।

विश्व विख्यात नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसीय परिक्रमा (84 Kosi Parikrama) का आरम्भ सतयुग में महर्षि दधिचि के द्वारा किया गया जिसका अनुसरण हर युग में होता रहा है। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की। वहीं द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डवों द्वारा नैमिषारण्य क्षेत्र की परिक्रमा की गई।

यह क्षेत्र विश्व का केन्द्र बिन्दु है। यहीं से सृष्टि की रचना का भी आरभ हुआ। यहीं पर आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु और सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया। इस 84 कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं ने वास किया। यहीं पर 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर तपस्या की।

ऐसे हुआ 84 कोसीय परिक्रमा मेले का शुभारंभ

मान्यता है कि सतयुग में जब वृत्रासुर दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। तब देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया, लेकिन सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए। अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा। इसके इंद्रदेव भागकर ब्रह्मा-विष्णु और शंकर के पास पहुंचे, लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है, जिससे वृत्रासुर दैत्य का वध हो सके। त्रिदेवों की यह बात सुनकर इंद्र देव मायूस हो गये। इन्द्र की दयनीय स्थिति देख कर भगवान शंकर ने उन्हें उपाय बताया कि प्रथ्वी लोक पर महर्षि दधीचि रहते है। उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को इतना कठोर बना लिया है कि उनकी हड्डियों से अगर अस्त्र बनाया जाए तो उससे वृत्रासुर मारा जा सकता है। उनकी शरण में जाओ और उनसे संसार के कल्याण के लिए उनकी अस्थियों का दान करने के लिए याचना करो। इन्द्र ने ऐसा ही किया। वह नैमिषारण्य क्षेत्र में स्थित उनके आश्रम पर पहुंचे और इन्द्र ने महर्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया और महर्षि से उनकी अस्थियों का दान मांगा जिस पर दधीचि जी सहज अपनी हड्डियों के दान के लिए तैयार हो गये।

इस दौरान महर्षि दधीचि ने इन्द्र से कहा, देवराज मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थ नहीं किया है। सिर्फ तप व साधना में ही लीन रहा हूं। इसलिए मैं चाहता हूं कि संसार के समस्त तीर्थों और समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं। फिर अपनी हड्डियों का दान करूं। यह सुन कर इन्द्र देव सोच में पड़ गये कि यदि महर्षि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय बीत जायेगा। इस पर देवराज ने संसार के समस्त तीर्थों और 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया। उन सभी को 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान दिया।

तब महर्षि दधीचि ने एक-एक कर सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन करते हुए कुछ ही समय में अपने आश्रम पहुंचे , जहां पर सभी तीर्थों के जल को एक सरोवर में मिलाया गया। उसी में महर्षि ने स्नान करके अपनी हड्डियों का दान किया। जिस तीर्थ में संसार के सभी तीर्थों के जल को मिलाया गया उसे दधीचि कुंड के नाम से जाना जाता है और जिस जगह पर यह कुंड है उस क्षेत्र को मिश्रित या मिश्रिख के नाम से जानते हैं।

तभी से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की प्रतिपदा से शुरू होने वाले नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस परिधि की परिक्रमा (84 Kosi Parikrama) में लाखों की संख्या में साधु संत व श्रद्धालुओं भग लेने पहुंचते है। मान्यता है कि जो भी श्रद्धा भाव से नैमिषारण्य क्षेत्र के 84 कोस की परिक्रमा (84 Kosi Parikrama) कर लेता है, वह 84 लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है।

परिक्रमा के हैं 11 पड़ाव-स्थल

84 कोस की परिधि में 11 पड़ाव स्थल हैं। इन पड़ाव स्थलों पर साधु संत और श्रद्धालु रात्रि विश्राम करते है। मौजूदा समय की भौगोलिक स्थिति के मुताबिक इस परिक्रमा के सात पड़ाव स्थल सीतापुर जनपद में पड़ते है और 4 पड़ाव स्थल हरदोई जनपद में पड़ते हैं। परिक्रमार्थियों को 84 कोस की परिक्रमा 15 दिनों में पूरी करनी होती है।

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