नई दिल्ली। हम फरदीन की कहानी बताने जा रहे हैं। बता दें कि वह शख्स जिसका शरीर तो लड़के का था, लेकिन रूह लड़की की। कागजात बनवाते वक्त जिस कॉलम में हम फट से मेल-फीमेल चुनते हैं, फरदीन वहां अटक जाते थे। इस अटकन से आजाद होने में उन्हें 30 साल लगे। आज वह फिजा हैं।
फिजा बताती हैं कि जब वह सालभर की थी, तभी अब्बू की मौत हो गई
फिजा बताती हैं कि जब वह सालभर की थी, तभी अब्बू की मौत हो गई। पढ़ाई के लिए मुझे मामा के घर जम्मू भेज दिया गया। मामा के घर वैसे तो खूब प्यार मिला, लेकिन रोज रात को छोटा-सा फरदीन मां की याद में रोया करता था। इसके बाद उसकी मां को बुलाया गया। मिलकर लौटती मां हबड़-तबड़ में बड़ी बेटी यानी मेरी बड़ी बहन की फ्रॉक छोड़ गईं। मामा के घर वह पहली चीज थी, जो लड़कियों की थी। वरना मामी के अलावा वहां सारे लड़के ही लड़के थे।
जब पांच साल की हुई तो समझने लगी थी कि मुझसे कुछ तो है जो आम लड़कों से है अलग
फिजा ने बताया कि फ्रॉक को मैंने जतन से अपने तकिए के पास रख लिया। दिनभर घूम-घूमकर मैं उस फ्रॉक को देखती रही। पता नहीं क्यों मन में आता था कि ये मेरी फ्रॉक है? फिजा ने बताया कि जब रात हुई। तब मैंने फ्रॉक पहन ली और सो गई। सुबह उठी तो मामा के लड़के हंस रहे थे। मामी ने उन्हें डांटा। उन्हें लगा, बच्चा घर की याद में ऐसा कर रहा है। जब पांच साल की हुई तो समझने लगी थी कि मुझसे कुछ तो है जो आम लड़कों से अलग है। लड़कों के साथ मारपीट की बजाए लड़कियों के साथ गुड़िया-घर खेलना अच्छा लगता। धींगामस्ती की बजाए सजना-संवरना भाता था। किसी से कह नहीं सकती थी। मुस्लिम परिवार में पैदाइश हुई।
मैं जब लड़कों के ग्रुप में जाती तो देखती कि वह लड़कियों के शरीर पर करते हैं भद्दे -भद्दे मजाक
लड़कों को जन्म से मर्द होने की ट्रेनिंग मिलने लगती है। जैसे बेखौफ घूमना, मनमर्जी का करना। मैं जब लड़कों के ग्रुप में जाती तो देखती कि वह लड़कियों के शरीर पर भद्दे मजाक करते हैं। गंदे-गंदे जोक्स कहते हैं। मैं घिन से भर आती थी। लगता जैसे वो मेरे शरीर के बारे में बात कर रहे हैं। फिजा बताती है कि मैं उन्हें थप्पड़ मारना चाहती थी लेकिन चुप रहती थी। उनकी हंसी में हंसना होता था। धीरे-धीरे मैं लड़कों से कटने लगी। मुझे अलग-थलग देखकर मां मुझे घर लौटा लाईं।
दिनभर के बाद रात मेरी अपनी हुआ करती थी, फिजा ने बताया कि मैं लड़कियों के कपड़े पहनती, सजती और आईना थी देखती
मैं बड़ी हो रही थी। मेरी छातियों में हल्का उभार आ रहा था। उसे छिपाने के लिए मुझे ढीले-ढीले कपड़े पहनने होते थे। जिस स्कूल में एडमिशन हुआ, वहां मैं अलग लड़का थी। लड़के मुझे डराने-धमकाने लगे। लड़कियों के साथ नहीं रह सकती थी वरना भेद खुल जाता। दिनभर के बाद रात मेरी अपनी हुआ करती। फिजा ने बताया कि मैं लड़कियों के कपड़े पहनती, सजती और आईना देखती थी। धीरे-धीरे मैंने जेबखर्च के पैसों से अपनी नाप के कपड़े खरीदना शुरू कर दिया। अलमारी के भीतर कपड़ों के बीच उन कपड़ों की दुनिया बसाई। वहां लिपस्टिक होती थी। स्नो-पाउडर और वह तमाम चीजें, जो किसी लड़की को अच्छी लगती हैं।
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फिजा ने बताया कि एक रोज मैं कपड़े बदल रही थी और मां धड़ाक से कमरे में आ गई
फिजा ने बताया कि मैं पैंटी पहनने लगी थी। तब मां या बहन को ये पता नहीं था। मैं अपने कपड़े इकट्ठे धोती और सूखने के बाद ही वहां से हटाया करती थी। फिजा ने बताया कि एक रोज मैं कपड़े बदल रही थी और मां धड़ाक से कमरे में आ गई। तब तो चुप रही, लेकिन रात में उसका चेहरा तना हुआ था। खाने के बाद पूछा – तू पैंटी क्यों पहनता है? दिनभर में मैंने जवाब तैयार कर लिया था। तपाक से कहा कि लड़कों वाले कपड़े मुझे चुभते हैं मम्मी। फिर मां ने कुछ नहीं पूछा।
स्कूल बैग खुला, कपड़े गिरे और पूरे स्कूल में मैं खराब चरित्र के लड़के के तौर पर बदनाम हो गई
छिपना-छिपाना ज्यादा दिन नहीं चल सका। हुआ यूं कि मैं रोज रात में पूरी लड़की बनकर सोती और सुबह मां के जागने से पहले कपड़े बदल लेती थी। उस दिन देर से जागी और हड़बड़ी में लड़कियों वाले कपड़े अपने स्कूल बैग में लेकर चली गई है। बैग खुला, कपड़े गिरे और पूरे स्कूल में मैं खराब चरित्र के लड़के के तौर पर बदनाम हो गई। लोगों और यहां तक कि मेरे घरवालों को भी लगता कि मेरे लड़कियों से संबंध हैं और उन्हीं के लिए मैं अपनी अलमारी में साजो सामान रखती हूं।
मैं अकेले में अपने शरीर को खूब गौर से देखती थी
फिजा ने बताया कि तब तक क्लास में हॉर्मोन्स का चैप्टर पढ़ाया जाने लगा था। मैं अकेले में अपने शरीर को खूब गौर से देखती। अपनी पसंद-नापसंद पर सोचती थी। मुझे यकीन होने लगा कि ऊपरवाले से मेरी बनावट में कोई भूल हो गई है। तब भी हालांकि खुद को लड़का बनाए रखने की मैंने भरपूर कोशिश की। रिवाज के मुताबिक गर्लफ्रेंड्स बनाने की कोशिश की। लड़कियां अच्छी तो लगतीं, लेकिन ऐसे कि मैं सोचती, काश मेरे बाल इसके जैसे होते या आंखें ऐसी बड़ी-बड़ी लगतीं।
मुस्लिम परिवार से थी, मजहबी दबाव था और दवाबों ने मुझे आधा लड़की, आधा लड़का बनाकर रख दिया
मुझ पर लड़का बने रहने का दबाव था। अच्छे घर से थी, उसका दबाव था। मुस्लिम परिवार से थी, मजहबी दबाव था। दवाबों ने मुझे आधा लड़की, आधा लड़का बनाकर रख दिया था। मैं बड़ी हो चुकी थी। शहर मेरी पहचान छिपाने लायक नहीं था। मैं मुंह ढांपकर दूसरे शहर जाती थी। हकीमों से मिलती। उन्हें बताया कि मैं हूं तो लड़का लेकिन लड़कियों में मेरी दिलचस्पी नहीं जागती।
हकीमों ने मुझे मर्दानगी की दवाएं दीं और दवाओं से भी मर्दपना नहीं जागा
हकीमों ने मुझे मर्दानगी की दवाएं दीं और दवाओं से भी मर्दपना नहीं जागा। तब मनोवैज्ञानिकों से मिली और फिर डॉक्टरों से। बहन को बताया फिर मां को। दोनों मुझे लेकर वापस मनोवैज्ञानिक के पास पहुंची। मेरी झाड़-फूंक भी हुई। सारे जतन कि लड़का लड़का ही रहे मैं तो लड़का थी ही नहीं। ढीली-ढाली टी-शर्ट पहने लड़का भीतर से पूरी तरह से लड़की हो रहा था, लेकिन मुस्लिम परिवार के लड़के का ये एलान आसान नहीं था। मैंने तब शिया समुदाय के इमाम को ई-मेल किया। अपनी सारी मुश्किलें, सारी जद्दोजहद बताई। बदले में ई-मेल आया। इस्लाम में या तो आप मर्द हो सकते हैं या फिर औरत। उसमें बीच का कोई रास्ता नहीं है। तब मैंने सर्जरी करवाने का तय किया और काम खोजकर दिल्ली चली आई है।
खुदकुशी के खयाल आते फिर मैं खुद को संभालती
यहां हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थैरेपी शुरू की। शरीर बदलने लगा। हल्की उभरी छातियां आकार लेने लगीं है। गठे हुए शरीर में नरमाहट आने लगी। बाल लंबे होने लगे हैं। चेहरे के बाल घटने लगे है। हॉर्मोन्स की दवाएं बहुत अलग होती हैं। मूड पर असर डालती हैं। मुझे मूड स्विंग्स होते। खुदकुशी के खयाल आते। फिर मैं खुद को संभालती। ये सारी तकलीफ इसलिए है ताकि मैं अपनी पसंद के कपड़े पहन सकूं। अपनी तरह की जिंदगी जी सकूं। ताकि मैं एक औरत बन सकूं, जो कि मैं असल में हूं।
मैंने अपना नाम फरदीन से फिजा करवा लिया है। वैसे ही कपड़े पहनती हूं जो कोई फिजा पहनती होगी। अब मुझे जोर से चिल्लाकर नहीं बोलना होता कि मेरी आवाज मर्दानी लगे। न मर्दों के बीच धौल-धप्पा करने की मजबूरी है। 30 साल बाद मैं अपनी पहचान को जीना शुरू कर रही हूं।