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विश्वसनीयता खो रहा किसान आंदोलन

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

गणतंत्र दिवस पर  के दिन ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा और उत्पात ने किसान आंदोलन के भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया है। जिस तरह दो किसान संगठनों ने हिंसा से अपनी असहमति जतते हुए खुद को आंदोलन से बाहर किया है, संयुक्त किसान मोर्चा के लिए यह चिंता का सबब भी है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले देश में कभी किसान आंदोलन नहीं हुए लेकिन किसी भी आंदोलन में राष्ट्रीय गौरव को कुचलने और अपमानित करने का प्रयास नहीं हुआ।

पुलिस जिस तरह नामजद किसान नेताओं पर शिकंजा कस रही है, उस स्थिति में किसानों की स्थिति क्या होगी। सिंघु बाॅर्डर पर आंदोलनकारियों को अब तो ग्रामीणों के विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है। ऐसा करने के पीछे ग्रामीणों की अपनी परेशानियां भी है। कल तक तो वे तमाम परेशानियों को झेलनें के बाद भी  आंदोलनकारियों के साथ थे लेकिन लाल किले और आईटीओ पर हुए प्रदर्शन और राष्ट्रध्वज के अपमान के बाद अब देश की जनता भी आंदोलनकारियों से नाराज है। भले ही किसान नेता कुछ भी दलील दें लेकिन जो गलती हुई है, उसकी कोई भी माफी नहीं है।

राजनीतिक हलकों में तो यह चर्चा भी तेज हो गई है कि क्या किसान आंदोलन का हस्र भी शाहीन बाग जैसा ही होगा। क्योंकि वह आंदोलन भी चरम पर पहुंच गया था और यह आंदोलन भी चरम पर पहुंच गया था लेकिन आंदोलनकारियों ने अपने ही कृत्य से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। 26 जनवरी को अगर दिल्ली पुलिस ने संयम न बरता होता तो परिणिति क्या होती, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। लाल किले में हुए वाकये के बाद इस आंदोलन के नेताओं की विश्वसनीयता और नेतृत्व क्षमता शक के घेरे में आ गई है।

हालांकि आंदोलन में शामिल कुछ किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा के लिए सरकार पर ही आरोप लगाया है। इसमें कितनी सचाई है, कहना मुश्किल है, लेकिन आंदोलनकारियों पर आंदोलन के नेताओं का नियंत्रण नहीं रहा, यह सच है। एक सवाल यह भी है कि देश के गौरव के प्रतीक लाल किले पर निशान साहिब फहराए जाने और कई जगह बेकाबू हिंसा के बाद भी पुलिस ने बड़े पैमाने पर बलपूर्वक उसे रोकने की कोशिश क्यों नहीं की?

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हालांकि ऐसा करने पर किसानों के और भड़कने का खतरा था। लेकिन जो कुछ घटा और उसके बाद जो घट रहा है, उससे लगता है कि आंदोलनकारी किसान वही गलती कर बैठे हैं, जिसका सरकार को इंतजार था। ट्रैक्टर परेड के दौरान हिंसा और उत्पात करने वाले लोग किसान थे या गुंडे, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन देश की राजधानी में हुई इस खुलेआम हिंसा ने किसान आंदोलन और उनकी जायज मांगों के प्रति आम आदमी की सहानुभूति को खो दिया है और इसे फिर से पाना बहुत ही मुश्किल है। आंदोलनकारी किसान संगठन शुरू से कृषि कानून खत्म करने  का दुराग्रह पाले हुए हैं, जो मोदी तो क्या कोई भी संवैधानिक सरकार शायद ही स्वीकार करेगी।

आंदोलन के संचालक किसान नेताओं को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के उस प्रस्ताव पर सकारात्मक ढंग से विचार करना था, जिसमें कृषि कानूनों को डेढ़ साल स्थगित करने की बात कही गई थी।यह सही है कि किसान आंदोलन के कारण मोदी सरकार दबाव में थी। लगता है कि आंदोलन की इसी शक्ति ने किसान नेताओं को मुगालते में ला दिया। वरना गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड करने का कोई औचित्य नहीं था क्योंकि गणतंत्र दिवस समूचे राष्ट्र के गौरव का दिवस है। यह किसी सरकार, पार्टी अथवा संगठन का गौरव दिवस नहीं है और नहीं मांगे जताने या मनवाने का दिन है।

ट्रैक्टर रैली किसी और दिन भी पूरी ताकत के साथ निकाली जा सकती थी।  किसान अपना शक्ति प्रदर्शन कर सकते थे।  आजादी के बाद दो ऐसे बड़े किसान आंदोलन हुए हैं, जिन्होंने देश की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का काम किया। ये दोनांे आंदोलन भी वामपंथियों ने ही खड़े किए थे। पहला था आजादी के तुरंत बाद 1947 से 1951 तक तेलंगाना ( पूर्व की हैदराबाद रियासत) में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन। इसमें छोटे किसानों ने ब्राह्मण जमींदारों  खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया था। लेकिन इसका असल फायदा रेड्डी और कम्मा जैसी सम्पन्न लेकिन पिछड़ी जातियों को हुआ। वे आज सत्ता की धुरी बनी हुई  हैं। इसके बाद दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसमें किसानों की मुख्य मांग बड़े काश्तकारों को खत्म करना, बेनामी जमीनों के समुचित वितरण और साहूकारों द्वारा किया जाने वाला शोषण रोकने की थी।

इसके परिणामस्वरूप बंगाल में भूमि सुधार लागू हुए। लेकिन हिंसक होने के कारण यह नक्सली आंदोलन जल्द ही देश की सहानुभूति खो बैठा। लेकिन इसने राज्य में वामपंथियों के लिए मजबूत राजनीतिक जमीन तैयार की, जिसे दस साल पहले ममता बनर्जी ने ध्वस्त  कर दिया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत ने अस्सी और नब्बे के दशक में कई किसान आंदोलन किए। 1988 में उन्होंने  5 लाख किसानों को एक सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर इकट्ठा कर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। अंततः राजीव सरकार ने आंदोलरत किसानों के 35 सूत्रीय चार्टर को स्वीकार किया, जिसमे किसानों को गन्ने का ज्यादा मूल्य देने, तथा बिजली पानी के बिलों में छूट जैसे बिंदु शामिल थे। लेकिन ये आंदोलन हिंसक नहीं हुए थे। कृषि कानूनो के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश सिंह टिकैत उन्हीं के पुत्र हैं और उन पर दूसरे किसान नेताओं ने गंभीर आरोप लगाए हैं।

 

राकेश टिकैत के आंदोलन में हिंसा का होना यह साबित करता है कि उन्होंने अपने पिता से कुछ भी नहीं सीखा। वर्ना वे  इस तरह का अनर्गल प्रलाप तो नहीं ही करते।  इस आंदोलन में बाजी अब सरकार के हाथ में आ गई है। वह जिसे चाहे धर-पकड़ कर सकती है। सिंघु बाॅर्डर पर सारी रात जिस तरह किसानों में दहशत रही। जिस तरह वहां बत्ती काटी गई, इसका मतलब साफ है कि अब यह आंदोलन लंबे समय तक नहीं चल पाएगा। किसानों ने बजट वाले दिन मार्च न निकालने की बात कर यह संकेत तो दे ही दिया है कि गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ, उससे आंदोलनकारी आम जनता की सहानुभूति खो चुके हैं।  जनता को भी लगने लगा है कि इस आंदोलन के पीछे कुछ राजनीतिक दल हैं, कुछ विदेशी ताकते हैं। किसान नेताओं को आज नहीं तो कल इस बात को समझना चाहिए। बड़े बेआबरू होकर आंदोलन स्थल से हटाए जाएं, इससे अच्छा होगा कि वे भी अपने दो किसान संगठनों की राह का अनुसरण करें। कदाचित यही उचित भी होगा और जरूरी भी।

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