भारत धर्मप्रधान देश है। धार्मिकता के आवेग में वह अक्सर इस बात को भूल जाता है कि वह संक्रमण की चपेट में भी आ सकता है। हरिद्वार केमहाकुंभ में मौनी अमावस्या पर लाखों श्रद्धालुओं ने आस्था की डुबकी लगाई। नवरात्र का प्रथम दिन हो तो गंगा स्नान से भला कौन खुद को विरत रखसकता है।
14 अप्रैल को शाही स्नान है जिसमें लाखों श्रद्धालु डुबकी लगा सकते हैं। एक ओर तो कोरोना संक्रमणसे बचाव हेतु सरकार नाइट कर्फ्यू लगाए जा रहे हैं। अदालतें तक सरकार को कई जिलों में लॉकडाउन पर विचार के निर्देश दे रही हैं। मंदिरों में सीमित संख्या में प्रवेश की अनुमति दी जा रही है। मरकज पर कार्रवाई को लेकर मुस्लिम संगठन भेदभाव का आरोप लगा रहे हैं, ऐसे में हरिद्वार जैसेमहाकुंभ में कोरोना को रोकना कैसे संभव है।
समझा जाना चाहिए कि भक्त का भगवान को अपने समीप खींच बुलाने में भक्ति भावना ही एक मात्र आकर्षण चुम्बकत्व है। भौतिक क्षेत्र में शारीरिक तत्परता और मानसिक तन्मयता का जो महत्व है वही आत्मिक क्षेत्र में श्रद्धा का है। उपासना उपचारों में कर्मकाण्ड परक विधि विधान पूरा करने पर भर से काम नहीं चलता। उसके लिए तदनरूप श्रद्धा भी उभरनी चाहिए।
अन्यथा कर्मकाण्ड अनुष्ठान मात्र श्रम उपचार भर रह जायेंगे और उनका उतना ही प्रतिफल मिलेगा जितना कि उस स्तर के परिश्रम का मिलना चाहिए। चमत्कार तो तब उत्पन्न होते हैं जब साधना विधि के साथ सघन श्रद्धा का भी समावेश होता है। इसलिए आध्यात्म क्षेत्र के सर्वोपरि सर्वसमर्थ श्रद्धा शास्त्र को अधिकाधिक सक्षम बनाने की आवश्यकता पड़ती है। इसका प्रारम्भिक अभ्यास कैसे हो? इसलिए गुरुतत्व को एकलव्य की तरह अपने निजी प्रयत्न से समर्थ बनाना पड़ता है।
यही है गुरुदीक्षा और गुरु दक्षिणा की परस्पर सम्बद्ध प्रक्रिया। शिष्य परअपना अनुदान भरा वात्सल्य बिखेरता है। दोनों एक दूसरे के सहयोगी रहते हुए हित साधना करते हुए अपना-अपना कर्त्तव्य पालन करते एवं श्रेय संपादित करने में सफल होते हैं। उच्च स्तरीय व्यक्तित्व वाले गुरु के माध्यम से श्रद्धा को अधिक पैनी बना लेने वाले साधक उस चुम्बकत्व को परब्रह्म के निमित्त नियोजित करते हैं तो उससे भी वैसी ही उपलब्धियां अर्जित कर सकते हैं जैसी की शरीर धारी गुरु की अनुकम्पा प्राप्त की जा सकी।
भव्य भवन बनाने से पूर्व उसके नक् शे या मॉडल बनाने पड़ते हैं। मोर्चे पर लड़ने से पूर्व सैनिकों को छावनी में नकली लड़ाई लड़नी पड़ती है। लड़कियां गुड्डे-गुड्डियों का चूल्हे चक्की का खेल खेलकर भावी गृहस्थ संचालन को पूर्ण शिक्षा आरम्भ करती हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना के परब्रह्म के साथ किस आधार पर तादात्मय जोड़ा जाये, इसका एक मात्र उत्तर श्रद्धा विश्वास है। श्रद्धा अर्थात अनन्य आत्मीयता। यह दोनों शब्द हवाई नहीं हैं।
कह देने या सुन लेने से कुछ बनता नहीं। अंतराल को उत्कृष्ठता के साथ अनन्य आत्मीयता स्थापित करने के लिए गुरु वरण की आवश्यकता पड़ती है। दैवी अनुशासन अपनाये बिना व्यक्त्वि का इस स्तर का बनना संभव नहीं, जिस पर ईश्वरीय अनुकंम्पायें बरसें। कुसंस्कारितों को छाती से चिपकाये हुए पूजा उपचार के माध्यम से देवताओं की जेब काटने का कुचक्र रचने वाले आमतौर से निराश ही रहते हैं। अनुशासन की तपश्चर्या ही उस पात्रता को परिपक्व करती है जिसके आधार पर विश्वचेतना के भाण्डारगार से कुछ कहने लायक उपलब्धियां हस्तगत हो सके। बेहतर होता कि हम धार्मिक कर्मकांडोंमें उलझने की बजाय, विेक सम्मत आचरण कर देते। आस्था निश्चित रूप से बड़ीचीज है लेकिन वह जिंदगी से बड़ी तो नहीं है। धर्म करने के लिए जीवित रहना जरूरी है। जीवन ही नहीं रहा तो धर्म कैसे होगा, विचार तो इसपर भी किया जाना चाहिए।