Atal's promise

हिन्दी के साथ न्याय होने तक, पूरा नहीं होता अटल का वादा

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चन्द्रशेखर उपाध्याय

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी दक्षिणपंथी ताकतों के संघर्ष के प्रतिमान तो थे ही, गरीबी एवं एकला चलो दौर के घटाटोप अँधियारे में चमकते हुए ध्रुव तारा भी थे। देश के बुनियादी सवालों पर समन्वय की राजनीति की आखिरी उम्मीद उन्हीं पर जाकर ठहर जाती थी। वे निरभिमानी, अहंकार शून्य, विनम्र और सरल होने के साथ ही निश्चल, कर्म से महान, लोक संग्रही संस्कारवान, संग्रह और सिंहासन के समान वितरण के आदि प्रचारक भी थे। दिखावटी, सजावटी, बनावटी, मिलावटी, छद्म, छल और फरेब की राजनीति के दौर में उन्हें भलमानसाहट का अंतिम सोपान तो कहा ही जा सकता है। इसलिए भी दाऊ दादा जी (पंडित अटल बिहारी बाजपेयी को हमारा परिवार शुरू से इसी नाम से पुकारता रहा है) बहुत याद आते हैं, आते रहेंगे, आने चाहिए, उनको भुलाना जैसे अंत की शुरुआत का एलान है। 25 दिसंबर 2020 को उनकी जन्मतिथि पर समस्त परिवार की ओर से हम उनका भाव पूर्ण स्मरण करते हैं और उनसे जुड़ी चीजों को याद करने की कोशिश करते हैं।

अप्रैल 1996 की उमस भरी दुपहरी, लोकसभा चुनाव का प्रचार भी पूरे तापमान पर था, उस दिन अटल जी की ब्रजमण्डल में सात सभाएं थीं, आखिरी सभा आगरा के बेलनगंज चौराहे पर थी, उससे पहले मथुरा के गांधी पार्क में। अमर उजाला के ब्यूरो चीफ का दायित्व उन दिनों मेरे पास था। सुबह दस बजे ही मेरठ से अतुल माहेश्वरी का फोन मेरे पास आया था, अपने चिर परिचित अन्दाज में उन्होंने कहा, पण्डित जी, अटल जी देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं, आज जोरदार इन्टरव्यू होना चाहिए।

1991 में देश दो खिचड़ी सरकारों के बाद नरसिम्हाराव की विवश सरकार को देख चुका था। ऐसा लगने लगा था कि 1996 में देश के भाग्य का फैसला होने जा रहा है। ‘बारी-बारी, सबकी बारी, अबकी बारी अटल बिहारी’ का नारा घर-घर में गूंज रहा था। अटल जी से औपचारिक व अनौपचारिक अनगित मुलाकतें इससे पहले हो चुकी थीं, लेकिन इस बार मामला नौकरी का था, सो मैं मथुरा पहुंचा। सायं लगभग साढ़े छह बजे मथुरा के गाँधी पार्क मैं उनका भाषण समाप्त हुआ। उस समय सुरक्षा के तमाम तामझाम इन दिनों की तरह नहीं थे। मैं उनकी एम्बेसडर कार के पास आसानी से पहुंच गया था। कल्याण सिंह को उनके साथ आगरा जाना था, लेकिन जैसे ही अटल जी गाड़ी में बैठे, मैं कल्याण सिंह से पहले उनके बगल में बैठ गया। पहले वे चौके फिर सदैव की तरह मुस्कुराए, कल्याण सिंह को दूसरी गाड़ी में बैठने का इशारा कर दिया।

उधर मथुरा से गाड़ियों का काफिला चला, इधर अटल जी और मेरा वार्तालाप, बोले, ‘निकालो कलम कागज’, मैंने कहा, आप बोलिये, मैं लिख लूंगा उन्होंने ठहाका लगाया और कहा फिर वहीं लिखोगे, जो मन में आयेगा। देश-देशान्तर और लोकसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति के बाद वार्ता ‘हिन्दी से न्याय’ मेरे इस अभियान पर रूक गयी। वह तथा संघ व अन्य दलों का शीर्ष नेतृत्व इस अभियान की प्रगति का लेखा-जोखा मुझसे प्राप्त करता रहता था। मैंने विषयान्तर किया, अटल जी धारा 370 का क्या होगा? बोले ‘पहले 272 तो हो’, फिर मैंने पूछा देश की शीर्ष अदालतों में हिन्दी एवं भारतीय भाषाएं कब होंगी? फिर दोहराया, पहले 272 तो हों। कब आगरा आ गया, पता ही नहीं चला। बीच में नगला चन्द्रभान (बप्पा दादाजी पण्डित दीनदयाल उपाध्याय जी का पैतृक गांव) पड़ा, अटल जी ने गांव की तरफ प्रणाम किया।

चुनाव परिणाम आये, भाजपा बहुमत से काफी दूर थी। अटलजी 13 दिन ही प्रधानमंत्री रहे, उसके बाद फिर मिली जुली सरकारें ही दोनों बार उन्होंने चलायी और भाजपा 272 का आंकड़ा नहीं छू पायी। 2014 के लोकसभा चुनाव में करिश्मा हुआ, भाजपा खुद अपने बलबूते 272 के आंकड़े से काफी आगे थी, मित्र दलों ने उसकी मजबूती को और बढ़ा दिया था।

राज्य सरकार प्रदेश भाषा नीति बनाने के लिए है अग्रसर : प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित

तब चार वर्ष तीन माह बीत गए थे, इस बार अटलजी मौन थे, काल के कुचक्र ने देश की प्रखरतम वाणी को हमसे छीन लिया था। उनका 90-93 पुराना शरीर जर्जर व अशक्त हो गया था। जब जवाब मौन था तो प्रश्न भी मौन हो गये। मैं कई बार अपने घर के उस बुजुर्ग से पूछना चाहता था कि अब तो 272 है? धारा 370 का क्या हुआ? ‘हिन्दी व भारतीय भाषा में न्याय’ इसका क्या हुआ? मुझे मालूम था कि अगर शीर्ष का वो ‘सूनापन’ नहीं होता तो अटल जी इन सवालों पर अपनी ही सरकार से जूझते और मजबूत व चट्टानी इरादों के साथ हमारे साथ खड़े होते।

19 अगस्त को उनकी अस्थियां व चिता की राख हरिद्वार में हर की पैड़ी पहुंची थी। फिर सदा के लिए अटलजी की अन्तिम निशानी भी गंगा में विलीन हो गयी थी और उनकी यह पीटा भी कि ‘पहले 272 तो हों।’ जल्द ही लोकसभा चनाव होने वाले थे। मैं निश्छल निर्बाध बह रही गंगा के तहत से सोच रहा था कि 2019 के आम लोकसभा चुनाव में देश यह सवाल जरूर करेगा कि पिछले ज्यादा कौन थे? तब उन्हें ही यह सोचना था जो उस समय 272 से ज्यादा थे।

मई 2019 में ईवीएम का फैसला आया, सटीक प्रबंधन व योजना ने भाजपा को 3031 के आंकडे पर पहुंचा दिया, मित्र दलों को मिलाकर भाजपा की संख्या साढ़े तीन सौ को पार कर गयी। गोलोक में अटल जी जरूर रोमांचित व प्रसन्न हुए होगे। भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक के तमाम बुनियादी सवालों पर कुछ न हो पाना’ उनको सदैव विचलित करता या होगा। अबकी बारी अटल बिहारी की नहीं, नये नेतृत्व की थी। मौजूदा भाजपा सरकार ने धारा 370 और 35ए का तो संशोधन कर दिया, लेकिन, हिन्दी के साथ न्याय होना अभी बाकी है और जब तक ऐसा नहीं होता तबतक, अटल जी की आत्मा यह सवाल पूछती रहेगी कि मेरे उत्तराधिकारियों, मेरी वचनबद्धता का क्या होगा?

लेखक पंडित दीन दयाल उपाध्याय के पारिवारिक प्रपौत्र हैं।

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