AK Sharma

एके शर्मा का नारा… वही होना है जो भाजपा-मोदी-योगी ने ठाना है

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लखनऊ। उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों (Nikay Chunavo) में राज्य सरकार ने ओबीसी वर्ग को पूर्ण आरक्षण (OBC Reservation) देते  हुए ही 5 दिसम्बर 2022 को आरक्षण की अनंतिम अधिसूचना जारी की थी। इसमें ओबीसी के लिए सभी प्रकार के निकायों की सब प्रकार की सीटों और पदों पर 27 प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी।

जैसे ही हाईकोर्ट का ओबीसी के आरक्षण के बिना चुनाव कराने का फ़ैसला आया उसके कुछ ही मिनटों में नगर विकास मंत्री एके शर्मा (AK Sharma) ने स्पष्ट कर दिया कि बिना ओबीसी आरक्षण (OBC Reservation) के चुनाव नहीं होंगे। ज़रूरत पड़ी तो सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी।

फ़ैसले के 24 घंटे में ही हाई कोर्ट के आदेशानुसार आयोग का गठन नगर विकास विभाग ने कर दिया। हाई कोर्ट के फ़ैसले के 36 घंटे के अंदर सर्वोच्च अदालत में याचिका भी सरकार ने दाखिल  कर दी जिसमें मुख्यतः यह कहा गया कि बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव नहि हो सकते हैं।

ए के शर्मा (AK Sharma) ने अपने चुनिंदा अधिकारियों को जब तक सर्वोच्च अदालत का फ़ैसला नहि आया तब तक दिल्ली में रख छोड़ा था। वो स्वयं रात-रात भर जागकर अपनी टीम और वकीलों से वार्ता करते थे। इस प्रकार मुख्यमंत्री योगी और ए के शर्मा (AK Sharma) इस बात के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं कि ओबीसी को पूर्ण आरक्षण देकर ही चुनाव होंगे।

अब आइये समाजवादी पार्टी की बात कर लें

सच बात तो यह है कि समाजवादी पार्टी के कुकर्मों से ओबीसी आरक्षण की हुई है समस्या। सपा के लोग जब तक परिवार का हित सधता है तब तक और किसी की चिंता नहीं करते। भले वो ओबीसी ही क्यों ना हो। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि जब सपा शासन में थी तो एक परिवार से ही दर्जनों विधायक, अनेक सांसद और कई मंत्री होते थे। वही संस्कृति इनके विधायकों ने भी सीखी है।

जब 2010 में पहली बार सर्वोच्च अदालत ने चुनाव के लिए पिछड़ा आयोग बनाने को कहा तो सपा ने अपने शासनकाल में 2012  से 2017 तक क्यों नहि बनाया। या उसके पहले और बाद में इसकी माँग क्यों नहीं की।

2012 में भी निकाय चुनाव उनके शासन में  वैसे ही हुए जैसे इस बार 2022 में प्रस्तावित थे। इनकी कथनी और करनी में फ़र्क़ देखिए। इस बार का विवाद सिर्फ़ इसलिए खड़ा हुआ कि सपा के एक विधायक जो एक नगर पालिका में उच्च पद पर पदासीन हुआ करते थे वहाँ इस बार अध्यक्ष की सीट ओबीसी हो गई। सामान्य वर्ग से आने वाले विधायक जी के  परिवार के लोग वहाँ से लड़ना चाहते थे। ओबीसी सीट को सामान्य सीट कराने के लिए ज़मीन आसमान एक किया गया। लेकिन योगी -शर्मा की सरकार में इनकी दाल नहीं गली।

इसी कारण यह क़ानूनी दाँवपेंच खड़ा किया गया। विधायक ने अपने नज़दीकी से PIL दाखिल करवाकर जब सरकार को परेशान करना शुरू किया तब तो सपा के लोगों को भी परिवार वाद में बहुत मज़ा आया।

अपने चुनावी स्वार्थ के चलते पीआईएल करने और कराने वालों ने खुद कोर्ट में इस इस बात की मांग भी की कि सरकार अगर आयोग गठित करने में समय लेती है तो चुनाव बिना OBC आरक्षण के ही कर लिया जाय।

सपा के विधायक के वकील ने ओबीसी समाज के हित के खिलाफ दलील दिया। इसका स्वयं हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में उल्लेख किया है।पैराग्राफ-5.7, 5.8, 5.9 में कोर्ट के जजमेंट में इसका ज़िक्र है।

वहीं भाजपा सरकार का कहना था कि अपने राज्य के क़ानून के तहत रैपिड सर्वे जो पिछले 12 साल के पंचायत और निकाय चुनावों में हुआ था वह किया गया है। उसके आधार पर ही 5 दिसंबर 2022 को जारी अधिसूचना में ओबीसी को आरक्षण-27% सभी प्रकार की सीटों और पदों पर दिया गया है।

इन सबके बावजूद समाजवादी पार्टी के करीबियों ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रिम कोर्ट तक  OBC आरक्षण के विरुद्ध अपनी लिखित और मौखिक दलीलें जारी रखीं और ओबीसी को आरक्षण न मिले उसके लिए क़ानूनी दांव पेंच चलते रहे।

सपा का दोहरा मापदंड देखिए

2012 से 2017 अपने शासनकाल में चुनाव के लिए पिछड़ा आयोग बनाया नहीं। जब इसके विधायक के वकील हाई कोर्ट में ओबीसी आरक्षण के बिना चुनाव करने की दलील दे रहे थे तब उन्हें रोका नहीं। इन्होंने कहा था कि सपा सुप्रिम कोर्ट जाएगी- लेकिन गए नहीं ।

वहीं सपा तरफी वकीलों की फौज सिर्फ़ इस बात के लिए लड़ रही थी कि चुनाव बिना ओबीसी आरक्षण के हो। कितने शातिर हैं ये लोग कि ओबीसी तरफी याचिका दाखिल  करने के बजाय केवीएट दाखल करके सर्वोच्च अदालत में भी ओबीसी आरक्षण के विरुद्ध पुरज़ोर प्रयास किया। लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत का धन्यवाद कि इनकी चाल नहीं चल पायी।

उत्तर प्रदेश के पिछड़े और वंचित वर्गों के साथ न्याय हुआ और होता रहेगा…

न्यायपालिका ज़िंदाबाद!

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